Devi Stotra Ratnakar

देवीस्तोत्राणि १-श्रीदेव्याः प्रातःस्मरणम्प्रातः स्मरामि शरदिन्दुकरोज्ज्वलाभांसद्रत्नवन्मकरकुण्डलहारभूषाम् ।दिव्यायुधोर्जितसुनीलसहस्त्रहस्तांरक्तोत्पलाभचरणां भवतीं परेशाम्॥१॥प्रातर्नमामि महिषासुरचण्डमुण्ड-शुम्भासुरप्रमुखदैत्यविनाशदक्षाम्ब्रह्मेन्द्ररुद्रमुनिमोहनशीललीलांचण्डी समस्तसुरमूर्तिमनेकरूपाम्॥२॥

जिनकी अंगकान्ति शारदीय चन्द्रमाकी किरणके समान उज्ज्वलहै, जो उत्तम रत्नद्वारा निर्मित मकराकृति कुण्डल और हारसेविभूषित हैं, जिनके गहरे नीले हजारों हाथ दिव्यायुधोंसे सम्पन्न हैंतथा जिनके चरण लाल कमलकी कान्ति-सदृश अरुण हैं, ऐसीआप परमेश्वरीका मैं प्रात:काल स्मरण करता हूँ॥१॥जो महिषासुर, चण्ड, मुण्ड, शुम्भासुर आदि प्रमुख दैत्योंकाविनाश करनेमें निपुण हैं, लीलापूर्वक ब्रह्मा, इन्द्र, रुद्र और मुनियोंकोमोहित करनेवाली हैं, समस्त देवताओंकी मूर्तिस्वरूपा हैं तथा अनेकरूपोंवाली हैं, उन चण्डीको मैं प्रात:काल नमस्कार करता हूँ॥२॥ 

प्रातर्भजामि भजतामभिलाषदात्रींधात्रीं समस्तजगतां दुरितापहन्त्रीम्।संसारबन्धनविमोचनहेतुभूतांमायां परां समधिगम्य परस्य विष्णोः॥३॥॥ इति श्रीदेव्याः प्रातःस्मरणं सम्पूर्णम्॥
२-सप्तश्लोकी दुर्गाशिव उवाच
देवि त्वं भक्तसुलभे सर्वकार्यविधायिनी।कलौ हि कार्यसिद्ध्यर्थमुपायं  ब्रूहि यत्नतः।।
देव्युवाच
श्रृणु देव प्रवक्ष्यामि कलौ सर्वेष्टसाधनम्।मया तवैव स्नेहेनाप्यम्बास्तुतिः प्रकाश्यते॥
जो भजन करनेवाले भक्तोंकी अभिलाषाको पूर्ण करनेवाली, समस्तजगत् का धारण-पोषण करनेवाली, पापोंको नष्ट करनेवाली, संसार-बन्धनके विमोचनकी हेतुभूता तथा परमात्मा विष्णुकी परा माया हैं,उनका ध्यान करके मैं प्रात:काल भजन करता हूँ॥३॥। इस प्रकार श्रीदेवीका प्रात:स्मरण सम्पूर्ण हुआ॥
शिवजी बोले-हे देवि! तुम भक्तोंके लिये सुलभ हो और समस्तकर्मोंका विधान करनेवाली हो। कलियुगमें कामनाओंकी सिद्धि-हेतु यदिकोई उपाय हो तो उसे अपनी वाणीद्वारा सम्यक्-रूपसे व्यक्त करो।देवीने कहा-हे देव! आपका मेरे ऊपर बहुत स्नेह है। कलियुगमेंसमस्त कामनाओंको सिद्ध करनेवाला जो साधन है वह बतलाऊँगी,सुनिये! उसका नाम है ‘अम्बास्तुति’।

ॐ अस्य श्रीदुर्गासप्तश्लोकीस्तोत्रमन्त्रस्य नारायण ऋषिः,अनुष्टुप् छन्दः, श्रीमहाकालीमहालक्ष्मीमहासरस्वत्यो देवताः, श्रीदुर्गा-प्रीत्यर्थं सप्तश्लोकीदुर्गापाठे विनियोगः ।ॐ ज्ञानिनामपि चेतांसि देवी भगवती हि सा   बलादाकृष्य मोहाय महामाया प्रयच्छति॥१॥ दुर्गे स्मृता हरसि भीतिमशेषजन्तोःस्वस्थैः स्मृता मतिमतीव शुभां ददासि।दारिद्रयदुःखभयहारिणि त्वदन्यासर्वोपकारकरणाय सदार्द्रचित्ता॥२॥सर्वमङ्गलमङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते॥३॥
ॐ इस दुर्गासप्तश्लोकी स्तोत्रमन्त्रके नारायण ऋषि हैं, अनुष्टुप्छन्द है, श्रीमहाकाली, महालक्ष्मी और महासरस्वती देवता हैं, श्रीदुर्गाकीप्रसन्नताके लिये सप्तश्लोकी दुर्गापाठमें इसका विनियोग किया जाता है।वे भगवती महामाया देवी ज्ञानियोंके भी चित्तको बलपूर्वक खींचकरमोहमें डाल देती हैं ॥१॥माँ दुर्गे! आप स्मरण करनेपर सब प्राणियोंका भय हर लेती हैं औरस्वस्थ पुरुषोंद्वारा चिन्तन करनेपर उन्हें परम कल्याणमयी बुद्धि प्रदान करतीहैं। दुःख, दरिद्रता और भय हरनेवाली देवि! आपके सिवा दूसरी कौन है,जिसका चित्त सबका उपकार करनेके लिये सदा ही दयार्द्र रहता हो॥२॥नारायणि! आप सब प्रकारका मंगल प्रदान करनेवाली मंगलमयी हैं,आप ही कल्याणदायिनी शिवा हैं, आप सब पुरुषार्थोंको सिद्ध करनेवाली,शरणागतवत्सला, तीन नेत्रोंवाली गौरी हैं; आपको नमस्कार है॥३॥Page 14शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणे ।सर्वस्यार्तिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते॥४॥सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते।भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते॥५॥रोगानशेषानपहंसि तुष्टारुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान्।त्वामाश्रितानां न विपन्नराणांत्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति॥ ६।।सर्वाबाधाप्रशमनं त्रैलोक्यस्याखिलेश्वरि।एवमेव त्वया कार्यमस्मद्वैरिविनाशनम्॥७॥
॥ इति श्रीसप्तश्लोकी दुर्गा सम्पूर्णा।
शरणागतों, दीनों एवं पीड़ितोंकी रक्षामें संलग्न रहनेवाली तथासबकी पीड़ा दूर करनेवाली नारायणी देवि! आपको नमस्कार है॥४॥सर्वस्वरूपा, सर्वेश्वरी तथा सब प्रकारकी शक्तियोंसे सम्पन्न दिव्यरूपादुर्गे देवि! सब भयोंसे हमारी रक्षा कीजिये; आपको नमस्कार है॥५॥देवि! आप प्रसन्न होनेपर सब रोगोंको नष्ट कर देती हैं और कुपितहोनेपर मनोवांछित सभी कामनाओंका नाश कर देती हैं। जो लोगआपकी शरणमें हैं, उनपर विपत्ति तो आती ही नहीं; आपकी शरणमेंगये हुए मनुष्य दूसरोंको शरण देनेवाले हो जाते हैं॥६॥सर्वेश्वरि! आप इसी प्रकार तीनों लोकोंकी समस्त बाधाओंकोशान्त करें और हमारे शत्रुओंका नाश करती रहें॥७॥। इस प्रकार श्रीसप्तश्लोकी दुर्गा सम्पूर्ण हुई।
३-श्रीदुर्गापदुद्धारस्तोत्रम् 

नमस्ते  शरण्ये शिवे सानुकम्पेनमस्ते जगद्व्यापिके विश्वरूपे।नमस्ते जगद्वन्द्यपादारविन्देनमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे॥१॥नमस्ते जगच्चिन्त्यमानस्वरूपेनमस्ते महायोगिनि ज्ञानरूपे।नमस्ते नमस्ते सदानन्दरूपेनमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ॥२॥अनाथस्य दीनस्य तृष्णातुरस्यभयार्तस्य भीतस्य बद्धस्य जन्तोः।
शरणागतोंकी रक्षा करनेवाली तथा भक्तोंपर अनुग्रह करनेवालीहे शिवे! आपको नमस्कार है। जगत् को व्याप्त करनेवाली हेविश्वरूपे! आपको नमस्कार है। हे जगत् के द्वारा वन्दितचरणकमलोंवाली! आपको नमस्कार है। जगत् का उद्धार करनेवालीहे दुर्गे! आपको नमस्कार है; आप मेरी रक्षा कीजिये॥१॥हे जगत् के द्वारा चिन्त्यमानस्वरूपवाली! आपको नमस्कार है।हे महायोगिनि! आपको नमस्कार है। हे ज्ञानरूपे! आपको नमस्कारहै। हे सदानन्दरूपे! आपको नमस्कार है। जगत् का उद्धार करनेवालीहे दुर्गे ! आपको नमस्कार है; आप मेरी रक्षा कीजिये॥२॥हे देवि! एकमात्र आप ही अनाथ, दीन, तृष्णासे व्यथित,भयसे पीड़ित, डरे हुए तथा बन्धनमें पड़े जीवको आश्रय देनेवाली
त्वमेका गतिर्देवि निस्तारकर्त्री नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे ॥३अरण्ये रणे दारुणे शत्रुमध्ये-ऽनले सागरे प्रान्तरे राजगेहेत्वमेका गतिर्देवि निस्तारनौकानमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे॥४॥अपारे महादुस्तरेऽत्यन्तघोरेविपत्सागरे मज्जतां देहभाजाम्।त्वमेका गतिर्देवि निस्तारहेतु-र्नमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे॥५॥नमश्चण्डिके चण्डदुर्दण्डलीला-समुत्खण्डिताखण्डिताशेषशत्रो  ।
तथा एकमात्र आप ही उसका उद्धार करनेवाली हैं। जगत् का उद्धारकरनेवाली हे दुर्गे! आपको नमस्कार है; आप मेरी रक्षा कीजिये॥३॥हे देवि! वनमें, भीषण संग्राममें, शत्रुके बीचमें, अग्निमें, समुद्रमें,निर्जन तथा विषम स्थानमें और शासनके समक्ष एकमात्र आप हीरक्षा करनेवाली हैं तथा संसारसागरसे पार जानेके लिये नौकाकेसमान हैं। जगत् का उद्धार करनेवाली हे दुर्गे! आपको नमस्कार है;आप मेरी रक्षा कीजिये॥४॥हे देवि! पाररहित, महादुस्तर तथा अत्यन्त भयावह विपत्ति-सागरमें डूबते हुए प्राणियोंकी एकमात्र आप ही शरणस्थली हैं तथाउनके उद्धारकी हेतु हैं। जगत् का उद्धार करनेवाली हे दुर्गे! आपकोनमस्कार है; आप मेरी रक्षा कीजिये ॥५॥अपनी प्रचण्ड तथा दुर्दण्ड लीलासे सभी दुर्दम्य शत्रुओंकोसमूल नष्ट कर देनेवाली हे चण्डिके! आपको नमस्कार है।
* दुर्गापदुद्धारस्तोत्रम्* १७ त्वमेका गतिर्देवि निस्तारबीजंनमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे॥६॥त्वमेवाघभावाधृतासत्यवादी-र्न जाता जितक्रोधनात् क्रोधनिष्ठा।इडा पिङ्गला त्वं सुषुम्णा च नाडीनमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे॥७॥नमो देवि दुर्गे शिवे भीमनादेसरस्वत्यरुन्धत्यमोघस्वरूपेविभूतिः शची कालरात्रिः सती त्वंनमस्ते जगत्तारिणि त्राहि दुर्गे॥८॥शरणमसि सुराणां सिद्धविद्याधराणांमुनिमनुजपशूनां दस्युभिस्त्रासितानाम्।हे देवि! आप ही एकमात्र आश्रय हैं तथा भवसागरसे पारगमनकीबीजस्वरूपा हैं। जगत्का उद्धार करनेवाली हे दुर्गे! आपको नमस्कारहै; आप मेरी रक्षा कीजिये॥६॥आप ही पापियोंके दुर्भावग्रस्त मनकी मलिनता हटाकर सत्यनिष्ठामेंतथा क्रोधपर विजय दिलाकर अक्रोधमें प्रतिष्ठित होती हैं। आप हीयोगियोंकी इडा, पिंगला और सुषुम्णा नाडियोंमें प्रवाहित होती हैं।जगत् का उद्धार करनेवाली हे दुर्गे! आपको नमस्कार है; आप मेरीरक्षा कीजिये॥७॥हे देवि! हे दुर्गे! हे शिवे! हे भीमनादे! हे सरस्वति! हे अरुन्धति!हे अमोघस्वरूपे! आप ही विभूति, शची, कालरात्रि तथा सती हैं। जगत् काउद्धार करनेवाली हे दुर्गे! आपको नमस्कार है; आप मेरी रक्षा करें॥८॥हे देवि! आप देवताओं, सिद्धों, विद्याधरों, मुनियों, मनुष्यों,
देवीस्तोत्ररलाकर*  १८नृपतिगृहगतानां व्याधिभिः पीडितानांत्वमसि शरणमेका देवि दुर्गे प्रसीद॥ ९॥इदं स्तोत्रं मया प्रोक्तमापदुद्धारहेतुकम्।त्रिसन्ध्यमेकसन्ध्यं वा पठनाद् घोरसङ्कटात्॥१०॥मुच्यते नात्र सन्देहो भुवि स्वर्गे रसातले।सर्वं वा श्लोकमेकं वा यः पठेद्भक्तिमान् सदा॥११॥स सर्वं दुष्कृतं त्यक्त्वा प्राप्नोति परमं पदम्।पठनादस्य देवेशि किं न सिद्ध्यति भूतले॥१२॥स्तवराजमिदं देवि संक्षेपात्कथितं मया॥१३॥॥ इति श्रीसिद्धेश्वरीतन्त्रे उमामहेश्वरसंवादे श्रीदुर्गापदुद्धारस्तोत्रं सम्पूर्णम्॥
पशुओं तथा लुटेरोंसे पीड़ित जनोंकी शरण हैं। राजाओंके बन्दीगृहमेंडाले गये लोगों तथा व्याधियोंसे पीड़ित प्राणियोंकी एकमात्र शरणआप ही हैं। हे दुर्गे! मुझपर प्रसन्न होइये ॥९॥विपदाओंसे उद्धारका हेतुस्वरूप यह स्तोत्र मैंने कहा। पृथ्वी-लोकमें, स्वर्गलोकमें अथवा पातालमें-कहीं भी तीनों सन्ध्याकालोंअथवा एक सन्ध्याकालमें इस स्तोत्रका पाठ करनेसे प्राणी घोरसंकटसे छूट जाता है ; इसमें कोई संदेह नहीं है। जो मनुष्य भक्ति-परायण होकर सम्पूर्ण स्तोत्रको अथवा इसके एक श्लोकको ही पढ़ताहै, वह समस्त पापोंसे छूटकर परम पद प्राप्त करता है। हे देवेशि!इसके पाठसे पृथ्वीतलपर कौन-सा मनोरथ सिद्ध नहीं हो जाता?अर्थात् सभी कार्य सिद्ध हो जाते हैं। हे देवि! मैंने संक्षेपमें यह स्तवराजआपसे कह दिया॥१०-१३॥।। इस प्रकार श्रीसिद्धेश्वरीतन्त्रके अन्तर्गत उमामहेश्वरसंवादमेंश्रीदुर्गापदुद्धारस्तोत्र सम्पूर्ण हुआ ।।
भुवनेश्वरीकात्यायनीस्तुतिः ध्यानम्
‘ॐ’ बालरविद्युतिमिन्दुकिरीटां तुङ्गकुचां नयनत्रययुक्ताम्।स्मेरमुखीं वरदाङ्कुशपाशाभीतिकरां प्रभजे भुवनेशीम्॥
स्तुतिः
देवि प्रपन्नार्तिहरे प्रसीदप्रसीद मातर्जगतोऽखिलस्य।प्रसीद विश्वेश्वरि पाहि विश्वंत्वमीश्वरी देवि चराचरस्य॥१॥आधारभूता जगतस्त्वमेकामहीस्वरूपेण यतः स्थितासि।ध्यानमैं भुवनेश्वरी देवीका ध्यान करता हूँ। उनके श्रीअंगोंकी आभाप्रभातकालके सूर्यके समान है और मस्तकपर चन्द्रमाका मुकुट है।वे उभरे हुए स्तनों और तीन नेत्रोंसे युक्त हैं। उनके मुखपर मुसकानकीछटा छायी रहती है और हाथोंमें वरद, अंकुश, पाश एवं अभय-मुद्राशोभा पाते हैं।स्तुति[देवता बोले-] शरणागतकी पीड़ा दूर करनेवाली देवि!हमपर प्रसन्न होओ। सम्पूर्ण जगत् की माता! प्रसन्न होओ। विश्वेश्वरि!विश्वकी रक्षा करो। देवि! तुम्हीं चराचर जगत् की अधीश्वरी हो॥१॥तुम इस जगत् का एकमात्र आधार हो; क्योंकि पृथ्वी-रूपमें तुम्हारी ही स्थिति है। देवि! तुम्हारा पराक्रम अलंघनीय है।
Page 20 * देवीस्तोत्ररलाकर* यदाअपां स्वरूपस्थितया त्वयैत-दाप्यायते कृत्स्नमलङ्घयवीर्ये ॥२॥त्वं वैष्णवी शक्तिरनन्तवीर्याविश्वस्य बीजं परमासि माया ।सम्मोहितं देवि समस्तमेतत्त्वं वै प्रसन्ना भुवि मुक्तिहेतुः॥३॥विद्याः समस्तास्तवदेवि भेदाःस्त्रियः समस्ताः सकला जगत्सु।त्वयैकया पूरितमम्बयेतत्का ते स्तुतिः स्तव्यपरा परोक्तिः॥४॥सर्वभूता देवी स्वर्गमुक्तिप्रदायिनी। ।त्वं स्तुता स्तुतये का वा भवन्तु परमोक्तयः॥५॥तुम्ही जलरूपमें स्थित होकर सम्पूर्ण जगत् को  तृप्त करती हो॥२॥तुम अनन्त बलसम्पन्न वैष्णवी शक्ति हो। इस विश्वकी कारणभूतापरा माया हो। देवि! तुमने इस समस्त जगत् को मोहित कर रखा है।तुम्हीं प्रसन्न होनेपर इस पृथ्वीपर मोक्षकी प्राप्ति कराती हो॥३॥देवि! सम्पूर्ण विद्याएँ तुम्हारे ही भिन्न-भिन्न स्वरूप हैं। जगत् मेजितनी स्त्रियाँ हैं, वे सब तुम्हारी ही मूर्तियाँ हैं। जगदम्ब! एकमात्रतुमने ही इस विश्वको व्याप्त कर रखा है। तुम्हारी स्तुति क्या हो सकतीहै? तुम तो स्तवन करनेयोग्य पदार्थोंसे परे एवं परा वाणी हो॥४॥जब तुम सर्वस्वरूपा देवी स्वर्ग तथा मोक्ष प्रदान करनेवाली हो,तब इसी रूपमें तुम्हारी स्तुति हो गयी। तुम्हारी स्तुतिके लिये इससेअच्छी उक्तियाँ और क्या हो सकती हैं? ॥ ५ ॥

।*भुवनेश्वरीकात्यायनीस्तुतिः*
सर्वस्य बुद्धिरूपेण जनस्य हृदि संस्थिते।स्वर्गापवर्गदे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते॥६॥कलाकाष्ठादिरूपेण परिणामप्रदायिनि।विश्वस्योपरतौ शक्ते नारायणि नमोऽस्तु ते॥ ७॥सर्वमङ्गलमङ्गल्ये शिवे सर्वार्थसाधिके।शरण्ये त्र्यम्बके गौरि नारायणि नमोऽस्तु ते॥ ८॥सृष्टिस्थितिविनाशानां शक्तिभूते सनातनि।गुणाश्रये गुणमये नारायणि नमोऽस्तु ते॥ ९ ॥शरणागतदीनार्तपरित्राणपरायणेसर्वस्यातिहरे देवि नारायणि नमोऽस्तु ते॥१०॥बुद्धिरूपसे सब लोगोंके हृदयमें विराजमान रहनेवाली तथा स्वर्गएवं मोक्ष प्रदान करनेवाली नारायणी देवि! तुम्हें नमस्कार है॥६॥कला, काष्ठा आदिके रूपसे क्रमश: परिणाम (अवस्था परिवर्तन)-की ओर ले जानेवाली तथा विश्वका उपसंहार करने में समर्थनारायणि! तुम्हें नमस्कार है॥७॥नारायणि! तुम सब प्रकारका मंगल प्रदान करनेवाली मंगलमयी हो।कल्याणदायिनी शिवा हो। सब पुरुषार्थोंको सिद्ध करनेवाली,शरणागतवत्सला, तीन नेत्रोंवाली गौरी हो। तुम्हें नमस्कार है॥८॥तुम सृष्टि, पालन और संहारकी शक्तिभूता, सनातनी देवी, गुणोंकाआधार तथा सर्वगुणमयी हो। नारायणि! तुम्हें नमस्कार है॥९॥शरणागतों, दीनों एवं पीड़ितोंकी रक्षामें संलग्न रहनेवाली तथासबकी पीड़ा दूर करनेवाली नारायणी देवि! तुम्हें नमस्कार है॥१०॥

देवीस्तोत्ररत्नाकर।हंसयुक्तविमानस्थे ब्रह्माणीरूपधारिणि।कौशाम्भःक्षरिके देवि नारायणि नमोऽस्तु ते॥११॥त्रिशूलचन्द्राहिधरे महावृषभवाहिनि।माहेश्वरीस्वरूपेण नारायणि नमोऽस्तु ते॥१२॥मयूरकुक्कुटवृते महाशक्तिधरेऽनये।कौमारीरूपसंस्थाने नारायणि नमोऽस्तु ते॥१३॥शङ्खचक्रगदाशार्ङ्गगृहीतपरमायुधेप्रसीद वैष्णवीरूपे नारायणि नमोऽस्तु ते॥१४॥गृहीतोग्रमहाचक्रे दंष्ट्रोद्धृतवसुंधरे।वराहरूपिणि शिवे नारायणि नमोऽस्तु ते॥१५॥नारायणि! तुम ब्रह्माणीका रूप धारण करके हंसोंसे जुते हुएविमानपर बैठती तथा कुश-मिश्रित जल छिड़कती रहती हो। तुम्हेंनमस्कार है॥११॥माहेश्वरीरूपसे त्रिशूल, चन्द्रमा एवं सर्पको धारण करनेवाली तथामहान् वृषभकी पीठपर बैठनेवाली नारायणी देवि! तुम्हें नमस्कार है॥ १२॥मोरों और मुर्गोंसे घिरी रहनेवाली तथा महाशक्ति धारण करनेवालीकौमारीरूपधारिणी निष्पापे नारायणि! तुम्हें नमस्कार है॥ १३॥शंख, चक्र, गदा और शार्ङ्गधनुषरूप उत्तम आयुधोंको धारण करनेवालीवैष्णवी शक्तिरूपा नारायणि! तुम प्रसन्न होओ। तुम्हें नमस्कार है॥१४॥हाथमें भयानक महाचक्र लिये और दाढ़ोंपर धरतीको उठायेवाराहीरूपधारिणी कल्याणमयी नारायणि! तुम्हें नमस्कार है॥ १५ ॥
भुवनेश्वरीकात्यायनीस्तुतिः -नृसिंहरूपेणोग्रेण हन्तुं दैत्यान् कृतोद्यमे।त्रैलोक्यत्राणसहिते नारायणि नमोऽस्तु ते॥१६॥किरीटिनि महावज्रे सहस्त्रनयनोज्ज्वले।वृत्रप्राणहरे चैन्द्रि नारायणि नमोऽस्तु ते॥१७॥शिवदूतीस्वरूपेण हतदैत्यमहाबले।घोररूपे महारावे नारायणि नमोऽस्तु ते॥१८॥  दंष्ट्राकरालवदने शिरोमालाविभूषणे।चामुण्डे मुण्डमथने नारायणि नमोऽस्तु ते॥१९॥लक्ष्मि लज्जे महाविद्ये श्रद्धे पुष्टिस्वधे ध्रुवे।महारात्रि महाऽविद्ये नारायणि नमोऽस्तु ते॥२०॥
भयंकर नृसिंहरूपसे दैत्योंके वधके लिये उद्योग करनेवाली तथात्रिभुवनकी रक्षामें संलग्न रहनेवाली नारायणि! तुम्हें नमस्कार है॥ १६ ॥मस्तकपर किरीट और हाथमें महावज्र धारण करनेवाली, सहस्रनेत्रोंके कारण उद्दीप्त दिखायी देनेवाली और वृत्रासुरके प्रार्णोका अपहरणकरनेवाली इन्द्रशक्तिरूपा नारायणी देवि! तुम्हें नमस्कार है॥१७॥शिवदूतीरूपसे दैत्योंकी महती सेनाका संहार करनेवाली, भयंकर रूपधारण तथा विकट गर्जना करनेवाली नारायणि! तुम्हें नमस्कार है॥ १८॥दाढ़ोंके कारण विकराल मुखवाली, मुण्डमालासे विभूषित मुण्ड-मर्दिनी चामुण्डारूपा नारायणि! तुम्हें नमस्कार है॥ १९॥लक्ष्मी, लज्जा, महाविद्या, श्रद्धा, पुष्टि, स्वधा, ध्रुवा, महारात्रितथा महा अविद्यारूपा नारायणि! तुम्हें नमस्कार है॥ १० ॥
२४देवीस्तोत्ररत्नाकरमेधे सरस्वति वरे भूति बाभ्रवि तामसि।नियते त्वं प्रसीदेशे नारायणि नमोऽस्तु ते॥२१॥सर्वस्वरूपे सर्वेशे सर्वशक्तिसमन्विते।भयेभ्यस्त्राहि नो देवि दुर्गे देवि नमोऽस्तु ते॥ २२॥एतत्ते वदनं सौम्यं लोचनत्रयभूषितम्।पातु नः सर्वभीतिभ्यः कात्यायनि नमोऽस्तु ते॥ २३॥ज्वालाकरालमत्युग्रमशेषासुरसूदनम्त्रिशूलं पातु नो भीतेर्भद्रकालि नमोऽस्तु ते॥२४॥मेधा, सरस्वती, वरा (श्रेष्ठा), भूति (ऐश्वर्यरूपा), बाभ्रवी (भूरेरंगकी अथवा पार्वती), तामसी (महाकाली), नियता (संयमपरायणा)तथा ईशा (सबकी अधीश्वरी)-रूपिणी नारायणि! तुम्हें नमस्कारहै॥२१॥सर्वस्वरूपा, सर्वेश्वरी तथा सब प्रकारकी शक्तियोंसे सम्पन्नदिव्यरूपा दुर्गे देवि! सब भयोंसे हमारी रक्षा करो; तुम्हें नमस्कारहै।।२२।।कात्यायनि! यह तीन लोचनोंसे विभूषित तुम्हारा सौम्य मुख सबप्रकारके भयोंसे हमारी रक्षा करे। तुम्हें नमस्कार है॥ २३॥भद्रकालि! ज्वालाओंके कारण विकराल प्रतीत होनेवाला, अत्यन्तभयंकर और समस्त असुरोंका संहार करनेवाला तुम्हारा त्रिशूल-भयसे हमें बचाये। तुम्हें नमस्कार है॥२४॥
भुवनेश्वरीकात्यायनीस्तुतिःहिनस्ति दैत्यतेजांसि स्वनेनापूर्य या जगत्।सा घण्टा पातु नो देवि पापेभ्योऽनः सुतानिव ॥ २५॥असुरासृग्वसापङ्कचर्चितस्ते करोज्ज्वल:।शुभाय खड्गो भवतु चण्डिके त्वां नता वयम् ॥ २६॥रोगानशेषानपहंसि तुष्टारुष्टा तु कामान् सकलानभीष्टान्।त्वामाश्रितानां न  विपन्नराणांत्वामाश्रिता ह्याश्रयतां प्रयान्ति॥ २७॥एतत्कृत यत्कदनं त्वयाद्यधर्मद्विषां देवि महासुराणाम्।देवि! जो अपनी ध्वनिसे सम्पूर्ण जगत् को व्याप्त करके दैत्योंकेतेज नष्ट किये देता है, वह तुम्हारा घण्टा हमलोगोंकी पापोंसे उसीप्रकार रक्षा करे, जैसे पिता अपने पुत्रोंकी बुरे कर्मोंसे रक्षा करताहै॥ २५॥चण्डिके! तुम्हारे हाथोंमें सुशोभित खड्ग, जो असुरोंके रक्तऔर चर्बीसे चर्चित है, हमारा मंगल करे। हम तुम्हें नमस्कार करतेहैं॥२६॥देवि! तुम प्रसन्न होनेपर सब रोगोंको नष्ट कर देती हो औरकुपित होनेपर मनोवांछित सभी कामनाओंका नाश कर देती हो। जोलोग तुम्हारी शरणमें हैं, उनपर विपत्ति तो आती ही नहीं; तुम्हारीशरणमें गये हुए मनुष्य दूसरोंको शरण देनेवाले हो जाते हैं।॥ २७॥देवि! अम्बिके! तुमने अपने स्वरूपको अनेक रूपों में विभक्त
रूपैरनेकैर्बहुधाऽऽत्ममूर्तिकृत्वाम्बिके तत्प्रकरोति कान्या॥२८॥विद्यासु शास्त्रेषु विवेकदीपे-ष्वाद्येषु वाक्येषु च का त्वदन्या।ममत्वगर्तेऽतिमहान्धकारेविभ्रामयत्येतदतीव विश्वम्॥२९॥रक्षांसि यत्रोग्रविषाश्च नागायत्रारयो दस्युबलानि  यत्र।दावानलो यत्र तथाब्धिमध्येतत्र स्थिता त्वं परिपासि विश्वम्॥३०॥विश्वेश्वरि त्वं परिपासि विश्वंविश्वात्मिका धारयसीति विश्वम्।करके नाना प्रकारसे जो इस समय इन धर्मद्रोही महादैत्योंका संहारकिया है, वह सब दूसरी कौन कर सकती थी?॥२८॥विद्याओंमें, ज्ञानको प्रकाशित करनेवाले शास्त्रोंमें तथा आदिवाक्यों(वेदों)-में तुम्हारे सिवा और किसका वर्णन है? तथा तुमको छोड़करदूसरी कौन ऐसी शक्ति है, जो इस विश्वको मोह-ममताके घनेअन्धकार-चक्रमें निरन्तर भटका सके॥२९॥जहाँ राक्षस, भयंकर विषवाले सर्प, शत्रु, लुटेरोंकी सेना औरदावानल हो, वहाँ तथा समुद्रके बीचमें भी साथ रहकर तुम सबकीरक्षा करती हो॥३०॥विश्वेश्वरि! तुम विश्वका पालन करती हो। विश्वरूपा हो.
भुवनेश्वरीकात्यायनीस्तुतिः-विश्वेशवन्द्या भवती भवन्तिविश्वाश्रया ये त्वयि भक्तिनम्राः ॥ ३१॥देवि प्रसीद परिपालय नोऽरिभीते-र्नित्यं यथासुरवधादधुनैव सद्यः ।पापानि सर्वजगतां प्रशम नयाशुउत्पातपाकजनितांश्च महोपसर्गान् ॥ ३२॥प्रणतानां प्रसीद त्वं देवि विश्वार्तिहारिणि।त्रैलोक्यवासिनामीडये लोकानां वरदा भव॥३३॥।। इति श्रीमार्कण्डेयमहापुराणे भुवनेश्वरीकात्यायनीस्तुतिः सम्पूर्णा ॥इसलिये सम्पूर्ण विश्वको धारण करती हो। तुम भगवान् विश्वनाथकोभी वन्दनीया हो। जो लोग भक्तिपूर्वक तुम्हारे सामने मस्तक झुकातेहैं, वे सम्पूर्ण विश्वको आश्रय देनेवाले होते हैं॥३१॥देवि! प्रसन्न होओ। जैसे इस समय असुरोंका वध करके तुमने शीघ्रही हमारी रक्षा की है, उसी प्रकार सदा हमें शत्रुओंके भयसे बचाओ।सम्पूर्ण जगत् का पाप नष्ट कर दो और उत्पात एवं पापोंके फलस्वरूपप्राप्त होनेवाले महामारी आदि बड़े-बड़े उपद्रवोंको शीघ्र दूर करो ॥३२॥विश्वकी पीड़ा दूर करनेवाली देवि! हम तुम्हारे चरणोंपर पड़ेहुए हैं, हमपर प्रसन्न होओ। त्रिलोकनिवासियोंकी पूजनीया परमेश्वरि!सब लोगोंको वरदान दो॥ ३३॥।। इस प्रकार श्रीमार्कण्डेयमहापुराणकी भुवनेश्वरी-कात्यायनीस्तुति सम्पूर्ण हुई।

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