Ma Baglamukhi Sadhana Rahasya

‘वेद’ एवं ‘तन्त्र’ के सन्दर्भ में : सिद्धि-प्रदा श्रीबगला-मुखी “राष्ट्र-गुरु’ श्री स्वामी जी महाराज

‘शक्ति’-उपासना में काली, तारा और षोडशी विद्या के ही रूप ध्येय, ज्ञेय रूप से विशेषत: प्रचार में हैं। अन्य महा-विद्याओ के विषय में बहुत कम ही प्रकाश हुआ है। श्रीबगला-मुखी महा-विद्या के विषय में ‘वेद’ एवं ‘तन्त्र’ – ग्रन्थों में जो कुछ कहा गया है; उस पर यहाँ कुछ विचार करते हैं, जिससे श्रीबगला विद्या का रहस्य पाठकों को व्यक्त होगा। माँ बगलामुखी साधना से सम्बंधित अधिक जानकारी के लिए गुरुदेव श्री योगेश्वरानंद जी से संपर्क करें – 9917325788, 9410030994

“स्वतन्त्र तन्त्र’ में भगवान् शङ्कर, पार्वती जी से कहते हैं कि ‘हे देवि! श्रीबगला विद्या के आविर्भाव को कहता हूँ। पहले कृत-युग में सारे जगत् का नाश करनेवाला वात-क्षोभ (तूफान) उपस्थित हुआ। उसे देखकर जगत् की रक्षा में नियुक्त भगवान् विष्णु चिन्ता-परायण हुए। उन्होंने सौराष्ट्र देश में ‘हरिद्रा सरोवर’ के समीप तपस्या कर श्रीमहा-त्रिपुर-सुन्दरी भगवती को प्रसन्न किया। श्री श्रीविद्या ने ही बगला-रूप से प्रकट होकर समस्त तूफान को निवृत्त किया। त्रैलोक्य-स्तम्भिनी ब्रह्मास्त्र बगला महा-विद्या श्री श्रीविद्या एवं वैष्णव-तेज से युक्त हुई।

मङ्गलवार-युक्त चतुर्दशी, मकार, कुल-नक्षत्रों से युक्त ‘वीर-रात्रि कही जाती है। इसी की ‘ अर्ध-रात्रि’ में श्रीबगला का आविर्भाव हुआ था।

उक्त कथानक के अनुकूल ‘कृष्ण-यजुर्वेद’ की काठक-संहिता में दो मन्त्र आए हैं, जिनसे श्रीबगला विद्या का वैदिक रूप प्रकट होता है-
विराड्-दिशा विष्णु-पत्यघोरास्येशाना सहसो या मनोता ।
विश्व-व्यचा इषयन्ती सुभूता शिवा नो अस्तु अदितिरुपस्थे।।
विष्टम्भो दिवो धरुणः पृथिव्या अस्येशाना सहसो विष्णु-पत्नी।
वृहस्पतिर्मातारश्वोत वायुस्संध्वाना वाता अभितो गृणन्तु ॥
(काठक संहिता, २२ स्थानक, १, २ अनु० ४९, ५०)

अर्थात् – विराट् दिशा’ दशों दिशाओं को प्रकाशित करनेवाली, ‘अघोरा’ सुन्दर स्वरूपवाली, ‘विष्णु-पत्नी’ विष्णु की रक्षा करनेवाली वैष्णवी महा-शक्ति, ‘अस्य’ त्रिलोक जगत् की ‘ईशाना’ ईश्वरी तथा ‘सहसः ‘महान् बल को धारण करनेवाली ‘मनोता’ कही जाती है।

‘मनोता’ का विवेचन ऐसा किया गया है-
वाग् वै देवानां मनोता तस्यां हि तेषां मनांसि ओतानि
अग्निर्वै देवानां मनोता तस्मिन् हि तेषां मनांसि ओतानि !
गौर्हि देवानां मनोता तस्यां हि तेषां मनांसि ओतानि | | (ऐतरेय ब्राह्मण २, १०)

अर्थात् देवताओं का मनस्तत्त्व वाक्, अग्नि और गौ में ओत-प्रोत है। अत: इन तीनों शक्तियों के समुदाय को मनोता’ कहते हैं।

‘विश्व -व्यचा’ अन्तरिक्ष लोक-स्वरूप समस्त नक्षत्र-मण्डल में प्रकाशित होनेवाली (‘अन्तरिक्षं विश्व-व्यचाः ‘तैत्तरीय ब्राह्मण ३-२-३७)।

‘इषयन्ती’ समस्त जगत् को प्रेरित करनेवाली इच्छा-शक्ति-रूपा।

‘सुभूता’ आनन्दार्थ अनेक रूपों में आविर्भाव होनेवाली।

‘अदितिः’ अविनाशी-स्वरूप देव-माता ‘उपस्थे’ हम उपासकों के समीप, ‘शिवा’ कल्याण-स्वरूपवाली, ‘अस्तु’ हो।

‘दिवः विष्टम्भ:’ अर्थात् दिव-लोक का स्तम्भन करनेवाली।

इस प्रकार ‘कृष्ण यजुर्वेद’ के उक्त मन्त्र में आया ‘विष्टम्भः’ पद श्रीबगला विद्या के प्रसिद्ध ‘स्तम्भन’-तत्त्व को बताता है।

‘धरुणः पृथिव्याः’ पद पृथिवी तत्त्व की प्रतिष्ठा बताता है-‘प्रतिष्ठा वै धरुणम्’ (शतपथ ब्राह्मण ७-४-२-५)।

श्रीबगला विद्या का बीज पार्थिव है-‘बीजं स्मेरत् पार्थिवम्’ तथा बीज-कोश में इसे ही ‘प्रतिष्ठा कला’ भी कहते हैं।

‘अस्य सहसः ईशाना’ सारे जगत् पर जिसका शासन है, उन ‘विष्णु-पत्नी’ अर्थात् विष्णु की रक्षा करनेवाली, वृहस्पति, मात-रिश्वा और वायु-रूपवाली, ‘संध्वाना’ शब्द-तत्त्व का कारण, ‘वाता’ वात-क्षोभ को शान्त करनेवाली, ‘अभितो गृणन्तु’ हमें उभय-लोक में भुक्ति एवं मुक्ति अर्थात् ‘स्वर्गापवर्ग-प्रदे’ प्रदान वरनेवाली श्रीबगला विद्या को बताता है।

इस प्रकार स्पष्ट होता है कि ‘स्वतन्त्र तन्त्र’ में उल्लिखित कथा और ‘कृष्ण यजुर्वेद’ के दोनों मन्त्रों में कथित श्रीबगला-तत्त्व अभिन्न हैं।

भगवती बगला का वास्तविक रूप
आभिचारिक प्रसङ्गों में श्रीबगला विद्या की प्रधानता होने से बहुत से लोग इन्हें ‘तामसिक शक्ति’ कहते हैं। ‘कामधेनु-तन्त्र’ में तामस प्रकरण में ही इनकी गणना की गई हैं और ‘कल्याण’ के शक्ति-अङ्क के ‘दश महा-विद्या’ शीर्षक लेख में पं० मोतीलाल शर्मा ने शत्रु-निरोध में ही इस विद्या का उपयोग लिखा है, परन्तु यह बात एक-देशीय है, प्रधानता के अभिप्राय में ही है, वास्तविक रूप से नहीं। ‘शक्ति-सङ्गम-तन्त्र’ (तारा-खण्ड) में तो
श्रीबगला को त्रि-शक्ति-रूप में माना गया है-
सत्ये काली च श्रीविद्या, कमला भुवनेश्वरी ।
सिद्ध-विद्या महेशानि!, त्रिशक्तिर्बगला शिवे! । ।

अत: श्रीबगला माता को तामस मानना ठीक नहीं है। आभिचारिक कृत्यों में रक्षा की ही प्रधानता होती है। यह कार्य इसी शक्ति द्वारा निष्पन्न होता है। इसीलिए इसके बीज की एक संज्ञा ‘रक्षा-बीज’ भी है (देखिए, मन्त्र-योग-संहिता)-
शिव-भूमि-युत शक्ति-नाद-विन्दु-समन्वितम्।
वीजं रक्षा-मयं प्रोक्तं, मुनिभिर्ब्रह्म-वादिभि:।।

“यजुर्वेद’के प्रसिद्ध ‘आभिचारिक प्रकरण’ में अभिचार-स्वरूप की निवृत्ति में इसी शक्ति का विनियोग किया गया है। इस प्रकरण का ‘यजुर्वेद’ की सभी संहिताओं (तैत्तरीय, मेत्रायणी, काक, काठक, माध्यन्दिनि, काण्व) में समान-रूप से पाठ आया है।

‘माध्यन्दिनि संहिता’ के भाष्य-कर्त्ता उव्वट, महीधर भाष्यकारों ने जैसा अर्थ इसका लिया है, उसका सार यहाँ देते हैं। पं० ज्वालाप्रसाद कृत मिश्र भाष्य में इसका हिन्दी अनुवाद भी दिया गया है।

“शुक्ल यजुर्वेद माध्यन्दिनि संहिता‘ के पाँचवें अध्याय की २३, २४, २५ वीं कण्डिकाओं में अभिचार-कर्म की निवृत्ति में श्रीबगला महा-शक्ति का वर्णन इस प्रकार आया है-
‘ रक्षोहणं वलग-हनं वैष्णवीमिदमहं तं वगलमुत्किरामि । ‘
अर्थात् ‘राक्षसों द्वारा किए गए अभिचार की निवृत्ति के लिए वैष्णवी महा-शक्ति को प्रतिपादन करनेवाली महा-वाणी को इन्द्र से कहो’ इत्यादि प्रसङ्ग में बगला-मुखी विद्या का स्वरूप वेद ने परम-रहस्य रूप से बताया है।
वेद में तन्त्र-शास्त्र – प्रसिद्ध बगला-पद ‘वलगा’-इस व्यत्यय नाम से कहा जाता है ।
इसका अर्थ उव्वट ने ऐसा किया है-

‘वलगान् कृत्या -विशेषान् भूमौ निखनितान् शत्रुभिर्विनाशार्थं हन्तीति वलगहा तां वलग-हनम् ।
अर्थात् ‘शत्रु के विनाश के लिए कृत्या-विशेष भूमि में जो गाड़ देते हैं, उन्हें नाश करनेवाली वैष्णवी महा-शक्ति को वलगहा कहते हैं।’ यही अर्थ वगला-मुखी का भी है।

‘खनु अवदारणे ‘ इम धातु से मुख’ शब्द बनता है, जिसका अर्थ मुख में पदार्थ का चर्वण या विनाश ही अभिप्रेत होता है। इस प्रकार शत्रुओं द्वारा किए हुए अभिचार को नष्ट करनेवानी महा-शक्ति का नाम ‘बगला-मुखी’ चरितार्थ होता है। श्रीमहीधर ने इसका स्पष्ट अर्थ ऐसा किया है-
‘पराजयं प्राप्य पलायमानं राक्षसैरिन्द्रादि-वधार्थमभिचार-रूपेण भूमौ निखाता अस्थि केश-नखादि-पदार्था: कृत्या-विशेषा वलगाः।
अर्थात् ‘ इन्द्रादि देवताओं द्वारा पराजित होकर भागे हुए राक्षसों ने देवताओं के बध के लिए अस्थि, केश, नखादि पदार्थों के द्वारा अभिचार किया।’
‘तैत्तरीय ब्राह्मण’ में भी कहा है- असुरा वै निर्यन्तो देवानां प्राणेषु वलगान् न्यखनन् अर्थात् देवताओं को मारने के लिए असुरों ने अभिचार किया।
‘शतपथ ब्राह्मण’ (३-४-३) में भी इसे इस प्रकार बताया है-
‘यदा वै कृत्यामुत्खनन्ति अथ सालसाऽमोघाऽभि- भवति तथा एवैष एतद्-यस्मा
अत्र कश्चित् द्विषन् भ्रातृव्यः कृत्यां वलगान् निखनति तानेवैतदुत्किरति ।
उक्त ही अर्थ इस वचन का भी है। ‘वलगा’का अर्थ महीधर ने इस प्रकार किया है-
‘यस्य बधार्थं क्रियते तं वृण्वन्नाच्छादयन् गच्छतीति वलगः।’
अर्थात् ‘जिसके वध के लिए कृत्या का प्रयोग किया जाता है, उसे गुप्त रीति से मार देता है।’ इसीलिए महर्षि यास्क ने ‘वलगो वृणौतः’ (निघण्टु ६) वृञ् आच्छादने’ घातु से बनाया है। ‘वलगान्’ इसी द्वितीयान्त पद के अनुकरण से ‘बगला’ तान्त्रिक नाम निष्पन हुआ है।
भगवती के ‘बगला-मुखी’ इस संज्ञा नाम की सिद्धि पर वैयाकरण लोग आपत्ति करते हैं कि यह नाम अशुद्ध है क्योंकि ‘नख-मुखात् संज्ञायाम्’ इस सूत्र से डीष्’ प्रत्यय का निषेध होकर आ-प्रत्यय होकर ‘बगला-मुखा’ ही नाम शुद्ध है, परन्तु ‘स्वाङ्गाच्चोपसर्जनादसंयोगोपधात्’ इस सूत्राधिकार से उक्त सूत्र की प्रवृत्ति होती है। यहाँ ‘मुखी’ शब्द स्वाङ्ग-वाची नहीं है। बगला के नि:सारण में ही ‘मुख’ शब्द का प्रयोग है। ‘मुखं निःसरणम् इत्यमरः’ तथा ‘मुखमुपाये प्रारम्भे श्रेष्ठे निःसरणास्ययोः इति हैमः ‘। उपाय, प्रारम्भ, श्रेष्ठ, नि:सरण और मुख के अर्थ में ही ‘मुख
शब्द का प्रयोग होता है। अत: उक्त सूत्र की यहाँ प्राप्ति ही नहीं है। ज्वाला-मुखी, सूर्य-मुखी, गौ-मुखी शब्दों की तरह यह शब्द भी सिद्ध ही है।

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श्री बगला-ध्यान-साधना ( पीताम्बरा ध्यान मंत्र )

भगवती बगला के ‘ध्यान’ को समझकर उसका समुचित रूप से ज्ञान प्राप्त करना परम आवश्यक है। ‘ध्यान´ के अनुसार चिन्तन होने पर ही सिद्धि प्राप्त होती है इसीलिए कहा गया है- `ध्यानं विना भवेन्मूकः, सिद्ध-मन्त्रोऽपि साधकः ।’ अर्थात् ध्यान के बिना सिद्ध-साधक भी गूँगा ही रहता है।

भगवती बगला के अनेक ‘ ध्यान’ मिलते हैं। ‘तन्त्रों’ में विशेष कार्यों के लिए विशेष प्रकार के ‘ध्यानों’ का वर्णन हुआ है। यहाँ कुछ ध्यानों का एक संग्रह दिया जा रहा है। आशा है कि बगलोपासकों के लिए यह संग्रह विशेष उपयोगी सिद्ध होगा, वे इसे कण्ठस्थ अर्थात् याद करके विशेष अनुभूतियों को प्राप्त करेंगे।

चतुर्भुजी बगला
सौवर्णासन-संस्थितां त्रि-नयनां पीतांशुकोल्लासिनीम्,
हेमाभाङ्ग-रुचिं शशाङ्क-मुकुटां स्रक्-चम्पक-स्र्ग -युताम्!
हस्तैर्मुद्गगर – पाश -वज्र-रसनां संविभ्रतीं भूषणै –
व्याेँप्ताङ्गीं बगला-मुखीं त्रि-जगतां संस्तम्भिनीं चिन्तये | |

अर्थात् सुवर्ण के आसन पर स्थित, तीन नेत्रोंवाली, पीताम्बर से उल्लसित, सुवर्ण की भाँति कान्ति- मय अङ्गोवाली, जिनके मणि-मय मुकुट में चन्द्र चमक रहा है, कण्ठ में सुन्दर चम्पा पुष्प की माला शोभित है, जो अपने चार हाथों में- १. गदा, २. पाश, ३. वज्र और ४. शत्रु की जीभ धारण किए हैं, दिव्य आभूषणों से जिनका पूरा शरीर भरा हुआ है-ऐसी तीनों लोकों का स्तम्भन करनेवाली श्रीबगला-मुखी की मैं चिन्ता करता हूँ।

द्वि-भुजी बगला ( पीताम्बरा ध्यान मंत्र ) मध्ये सुधाऽब्धि-मणि-मण्डप-रत्न-वेद्याम्, सिंहासनोपरि-गतां परि-पीत-वर्णाम् ।
पीताम्बराऽऽभरण-माल्य-विभूषिताङ्गीम्, देवीं नमामि धृत-मुदगर -वैरि-जिह्वाम् ।।१
जिह्वाग्रमादाय करेण देवीम्, वामेन शत्रून् परि-पीडयन्तीम् ।
गदाऽभिघातेन च दक्षिणेन, पीताम्बराढ्यां द्वि-भुजां नमामि ।।२


अर्थात् सुधा-सागर में मणि-निर्मित मण्डप बना हुआ है और उसके मध्य में रत्नों की बनी हुई चौकोर वेदिका में सिंहासन सजा हुआ है, उसके मध्य में पीले रङ्ग के वस्त्र और आभूषण तथा पुष्पों से सजी हुई श्रीभगवती बगला-मुखी को मैं प्रणाम करता हूँ।।१।॥ भगवती पीताम्बरा के दो हाथ हैं ; बॉए से शत्रु की जिह्वा को बाहर खींचकर दाहिने हाथ में धारण किए हुए मुद्र्गर से उसको पीड़ित कर रही हैं ||2||

चतुर्भुजी बगला (मेरु-तन्त्रोक्त) गम्भीरां च मदोन्मत्तां, तप्त-काञ्चन-सन्निभाम् । चतुर्भुजां त्रि-नयनां, कमलासन-संस्थिताम || मुद्-गरं दक्षिणे पाशं, वामे जिह्वां च वज्रकम् ।पीताम्बर-धरां सान्द्र-वृत्त-पीन-पयोधराम‌् || हेम-कुण्डल-भूषां च, पीत-चन्द्रार्ध-शेखराम् । पीत-भूषण-भूषां च, स्वर्ण-सिंहासन-स्थिताम‌् ||
अर्थात् साधक गम्भीराकृति, मद से उन्मत्त, तपाए हुए सोने के समान रङ्गवाली, पीताम्बर धारण किए वर्तुलाकार परस्पर मिले हुए पीन स्तनोंवाली, सुवर्ण-कुण्डलों से मण्डित, पीत-शशि-कला-सुशोभित, मस्तका भगवती पीताम्बरा का ध्यान करे, जिनके दाहिने दोनों हाथों में मुद्र्गर और पाश सुशोभित हो रहे हैं तथा वाम करों में वैरि-जिह्ना और वज्र विराज रहे हैं तथा जो पीले रङ्ग के वस्त्राभूषणों से सुशोभित होकर सुवर्ण-सिंहासन में कमलासन पर विराजमान हैं।

चतुर्भुजी बगला (बगला-दशक)
वन्दे स्वर्णाभ-वर्णां मणि-गण-विलसद्धेम- सिंहासनस्थाम् ।
पीतं वासो वसानां वसु – पद – मुकुटोत्तंस- हाराङ्गदाढ्याम् ।।
पाणिभ्यां वैरि-जिह्वामध उपरि-गदां विभ्रतीं तत्पराभ्याम् ।
हस्ताभ्यां पाशमुच्चैरध उदित-वरां वेद-बाहुं भवानीम् ।।

अर्थात् सुवर्ण जैसी वर्णवाली, मणि-जटित सुवर्ण के सिंहासन पर विराजमान और पीले वस्त्र पहने हुई एवं ‘वसु-पद’ (अष्ट-पद/अष्टापद) सुवर्ण के मुकुट, कण्डल, हार, बाहु-बन्धादि भूषण पहने हुई एवं अपनी दाहिनी दो भुजाओं में नीचे वैरि-जिह्वा और ऊपर गदा लिए हुईं, ऐसे ही बाएँ दोनों हाथों में ऊपर पाश और नीचे वर धारण किए हुईं, चतुर्भुजा भवानी (भगवती) को प्रणाम करता हूँ।

श्रीब्रह्मा द्वारा उपासिता श्रीबगला-मुखी

वादी मूकति, रङ्कति क्षिति-पतिर्वैश्वानरः शीतति ।
क्रोधी शान्तति, दुर्जनः सुजनति, क्षिप्रांनुगः खञ्जति ।।
गर्वी खर्वति, सर्व-विच्च जड़ति त्वद्-यन्त्रणा यन्त्रितः ।
श्री-नित्ये बगला-मुखि! प्रति-दिनं कल्याणि! तुभ्यं नमः ।।

युवतीं च मदोन्मत्तां, पीताम्बरा-धरां शिवाम् । पीत-भूषण-भूषाङ्गीं, सम-पीन-पयोधराम्॥
मदिरामोद-वनां प्रवाल-सदृशाधराम् । पान-पात्रं च शुद्धिं च, विभ्रतीं बगलां स्मरेत् ।

पीताम्बर-धरां सौम्यां, पीत-भूषण-भूषिताम् । स्वर्ण-सिंहासनस्थां च, मूले कल्प-तरोरधः ॥
वैरि-जिह्वा-भेदनार्थं , छूरिकां विभ्रतीं शिवाम् । पान-पात्रं गदां पाशं, धारयन्ती भजाम्यहम् ।॥

सर्व-मन्त्र-मयीं देवीं, सर्वाकर्षण-कारिणीम् । सर्व- विद्या-भक्षिणीं च, भजेऽहं विधि-पूर्वकम् ॥

श्री अक्षोभ्य ऋषि द्वारा उपासिता श्रीबगला-मुखी
प्रत्यालीढ-परां घोरां, मुण्ड-माला-विभूषिताम् । खर्वां लम्बोदरीं भीमां, पीताम्बर-परिच्छदाम् ।।
नव-यौवन-सम्पन्नां, पञ्च-मुद्रा-विभूषिताम् । चतुर्भुजां ललज्जिह्वां , महा-भीमां वर-प्रदाम् ||
खड्ग-कर्त्री-समायुक्तां, सव्येतर-भुज-द्वयाम् । कपालोत्पल-संयुक्तां, सव्य-पाणि-युगान्विताम् । ।
पिङ्गोग्रैक-सुखासीनां, मौलावक्षोभ्य-भूषिताम् । प्रज्वलत्-पितृ-भू-मध्य-गतां दन्ष्ट्रा-करालिनीम्।
तां खेचरां स्मेर-वदनां, भस्मालङ्कार-भूषिताम् । विश्व-व्यापक-तोयान्ते, पीत-पद्मोपरि-स्थिताम् ।।

ऋषि श्रीनारद द्वारा उपासिता श्रीबगला-मुखी
चतुर्भुजां त्रि-नयनां, कमलासन-संस्थिताम् । त्रिशूलं पान-पात्रं च, गदां जिह्वां च विभ्रतीम् ।।
बिम्बोष्ठीं कम्बु-कण्ठीं च, सम-पीन-पयोधरां। पीताम्बरां मदाघूर्णां , ध्याये ब्रह्मास्त्र-देवतां ।।
पीताम्बरां पीत-माल्यां, पीताभरण-भूषिताम् । पीत-कञ्ज-पद-द्वन्द्वां , बगलां चिन्तयेऽनिशम् ।।

ऋषि श्रीदुर्वासा द्वारा उपासिता श्रीबगला-मुखी
चतुर्भुजां त्रि-नयनां, पीनोन्नत-पयोधराम् । जिह्वां खड्गं पान-पात्रं, गदां धारयन्तीं पराम् ।।
पीताम्बर-धरां देवीं, पीत-पुष्पैरलंकृताम् । बिम्बोष्ठीं चारु-वदनां, मदाघूर्णित-लोचनाम् ।।
सर्व-विद्याकर्षिणीं च, सर्व-प्रज्ञापहारिणीम् । भजेऽहं चास्त्र-बगलां,सर्वाकर्षण-कर्मसु ।।

ऋषि श्रीवशिष्ठ द्वारा उपासिता श्रीबगला-मुखी
पीताम्बर-धरां देवीं द्वि-सहस्त्र-भुजान्विताम । सान्द्र-जिव्हां गदा चास्त्रं, धारयन्तीं शिवां भजे । ।

ऋषि श्रीअग्नि-वराह द्वारा उपासिता श्रीबगला- मुखी
विलयानल-सङ्काशां , वीरां वेद-समन्विताम् । विराण्मयीं महा-देवीं, स्तम्भनार्थे भजाम्यहम् ।।

ऋषि श्रीकालाग्नि-रुद्र द्वारा उपासिता श्रीबगला-मुखी
जातवेद-मुखीं देवीं, देवतां प्राण-रूपिणीम् । भजेऽहं स्तम्भनार्थं च, चिन्मयीं विश्व-रूपिणीम् ।।

ऋषि श्रीअत्रि द्वारा उपासिता श्रीबगला-मुखी
ज्वलत्-पद्मासन-युक्तां कालानल-सम-प्रभाम् । चिन्मयीं स्तम्भिनीं देवीं, भजेऽहं विधि-पूर्वकम्।।

ऋषि श्रीदारुण द्वारा उपासिता श्रीबगला-मुखी
ध्याये प्रेतासनां देवीं, द्वि-भुजां च चतुर्भुजाम् । पीत-वासां मणि-ग्रीवां, सहस्त्रार्क-सम-द्युतिम् ।

ऋषि श्रीसविता द्वारा उपासिता श्रीबगला-मुखी
कालानल-निभां देवीं, ज्वलत् – पुञ्ज-शिरोरुहां। कोटि-बाहु-समायुक्तां, वैरि-जिह्वा-समन्वितां।।
स्तम्भनास्त्र-मयीं देवीं, दृढ-पीन-पयोधराम् । मदिरा-मद-संयुक्तां, वृहद्-भानु-मुखीं भजे ।।

श्रीबगला- पटलोक्त ध्यान
उद्यत्-सूर्य-सहस्त्राभां, मुण्ड-माला-विभूषिताम् । पीताम्बरां पीत-प्रियां, पीत-माल्य-विभूषिताम् ।।
पीतासनां शव-गतां, घोर-हस्तां स्मिताननाम् । गदारि-रसनां हस्तां, मुद्गरायुध-धारिणीम् ।।
नृ-मुण्ड-रसनां बालां, तदा काञ्चन-सन्निभाम् । पीतालङ्कार-मयीं, मधु-पान-परायणाम् ।
नानाभरण-भूषाढ्यां, स्मरेऽहं बगला-मुखीम्।।

श्रीब्रह्मास्त्र कल्पोक्त सूर्य- मण्डल-स्थित श्रीबगला- मुखी का ध्यान
नव-यौवन-सम्पन्नां, सर्वाऽऽभरण-भूषिताम् । पीत-माल्यानुवसनां, स्मरेत् तां बगला-मुखीम् ।।

श्रीसांख्यायन-तन्त्रोक्त भगवती बगला के विविध ध्यान
चलत्-कनक-कुण्डलोल्लासित-चारु-गण्ड-स्थलां।
लसत् – कनक- चम्पक-द्युतिमदिन्दु – बिम्बाननाम् ।।

गदाहत – विपक्षकां कलित – लोल-जिह्वाञ्चलां ।
स्मरामि बगला-मुखीं विमुख-वाङ्-मन-स्तम्भिनीं ।1।

पीयूषोदधि-मध्य – चारु – विलसद् – रत्नोज्ज्वले मण्डपे ।
श्री – सिंहासन – मौलि-पातित-रिपुं प्रेतासनाध्यासिनीम् ।।
स्वर्णाभां कर-पीडतारि-रसनां भ्राम्यद्-गदां विभ्रतीम् ।
यस्त्वां पश्यति यान्ति तस्य विलयं सद्योऽम्ब! सर्वापदः ।2।

पीत – वर्णां मदाघूर्णां, सम – पीन – पयोधराम‌् ।
चिन्तयेद् बगलां देवीं, स्तम्भनास्त्राधि-देवताम् ।3।  

पाठीन-नेत्रां परिपूर्ण-गात्रां, पञ्चेन्द्रिय-स्तम्भन-चित्त-रूपां ।
पीताम्बराढ्यां पिशिताशिनीं तां, भजामि स्तम्भन-कारिणीं सदा ।4।

पीताम्बर-धरां सान्द्रां, पूर्ण-चन्द्र-निभाननाम् ।
वामे जिह्वां गदामन्ये, धारयन्तीं भजाम्यहम् ।5।

बिम्बोष्ठीं चारु-वदनां, सम-पीन-पयोधराम् ।
पान – पात्रं वैरि – जिह्वां, धारयन्तीं शिवां भजे ।6।

पीताम्बरालंकृत-पीत-वर्णां, सप्तोदरीं शर्व-मुखामरार्चिताम् ।
पीन-स्तनालंकृत-पीत-पुष्पां, सदा स्मरेऽहं बगला-मुखीं हृदि ।7।

कम्बु-कण्ठीं सु-ताम्रोष्ठीं, मद-विह्वल-चेतसाम् ।
भजेऽहं बगलां देवीं, पीताम्बर – धरां शिवाम् ।8।  

नमामि बगलां देवीमासव-प्रिय – भामिनीम् ।
भजेऽहं स्तम्भनार्थं च, गदां जिह्वां च विभ्रतीम् ।9।

कौलागमैक-संवेद्यां, सदा कौल-प्रियाम्बिकाम् ।
भजेऽहं सर्व – सिद्धयर्थ, वगलां चिन्मयीं हृदि ।10।

निधाय पादं हृदि वाम-पाणिनां, जिह्वां समुत्पाटन-कोप-संयुताम् ।
गदाभिघातेन च भाल-देशके, अम्बां भजेऽहं बगलां हृदम्बुजे ।11।

सुधाब्धौ रत्न-पर्यङ्के, मूले कल्प-तरोस्तथा ।
ब्रह्मादिभिः परिवृतां, बगलां भावयाम्यहम् ।12।

पीत-वर्णां मदाघूर्णां, दृढ-पीन-पयोधराम् ।
वन्देऽहं बगलां देवीं, स्तम्भनास्त्र-स्वरूपिणीम् ।13।

पीत-बन्धूक-पुष्पाभां, बुद्धि-नाशन-तत्पराम् ।
वन्देऽहं बगलां देवीं, स्तम्भनास्त्राधि-देवताम् ।14।

जिह्वाग्रमादाय कर-द्वयेन, छित्वा दधन्तीमुरु-शक्ति-युक्तां।
पीताम्बरां पीन-पयोधराढ्यां, सदा स्मरेऽहं बगलाम्बिकां हृदि ।15।

नमस्ते बगलां देवीं, जिह्वा-स्तम्भन-कारिणीम् ।
भजेऽहं शत्रु-नाशार्थं, मदिरासक्त-मानसाम् ।16।

  चतुर्भुजां त्रि-नयनां, पीत-वस्त्र-धरां शिवाम् ।
वन्देऽहं बगलां देवीं, शत्रु-स्तम्भन-कारिणीम् ।17।

सर्वावयव-शोभाढ्यां, सम-पीन-पयोधराम् ।
हृदि सम्भावये देवीं, बगलां सर्व- सिद्धिदाम् ।18।

पर – प्रज्ञापहारीं तां, पर – गर्व – प्रभेदिनीम् ।
पर – विद्या -भक्षिणीं तां, बगलां हृदि भावये ।19।

नमस्ते देव-देवेशीं, जिह्वा-स्तम्भन-कारिणीम् ।
पान-पात्र-गदा-युक्तां, भजेऽहं बगला-मुखीम् ।20।

स्वर्ण-सिंहासनासीनां, सुन्दराङ्गीं शुचि-स्मिताम् ।
बिम्बोष्ठीं चारु – नयनां, ध्याये पीन-पयोधराम् ।21।

अम्बां पीताम्बराढ्यामरुण-कुसुम-गन्धानुलेपां त्रि-नेत्रां ।
गम्भीरां कम्बु-कण्ठीं कठिन-कुच-युगां चारु-बिम्बाधरोष्ठीं।।
शत्रोर्जिह्वां च खड्गं शर-धनु-सहितां व्यक्त-गर्वाधि-रूढां ।
देवीं तां स्तम्भ – रूपां हृदि परिवरसितमम्बिकां तां भजामि ।22।

नमस्ते बगलां देवीं, शत्रु-वाक्-स्तम्भ-कारिणीम् ।
भजेऽहं विधि-पूर्वं त्वां, जयं देहि रिपून् दह ।23

जातवेद-मये देवि! जगज्जनन – कारिणि! ।
जय पीताम्बर- धरे!, बगले! ते नमो नमः ।24।

नानालङ्कार – शोभाढ्यां, नर-नारायण – प्रियाम् ।
वन्देऽहं बगलां देवीं, पर – ब्रह्माधि – दैवताम् ।25।

बाल-भानु-प्रतीकाशां, नील-कोमल-कुन्तलाम् ।
वन्देऽहं बगलां देवीं, स्तम्भनास्त्र-स्वरूपिणीम् ।26।

नमस्ते देव – देवेशि! नमः पन्नग भूषणे !।
पान-पात्र-युते देवि! बगले! त्वां नमाम्यहम‌् ।27।

कल्प- द्रुमाधो हेम-शिलां प्रविलसच्चित्तोल्लसत्-कान्तिम् ।
पञ्च-प्रेतासनमारूढां भक्त-जन-काम-वितरण-शीलाम् ।28।

विश्वेश्वरीं विश्व-वन्द्यां, विश्वानन्द-स्वरूपिणीम् ।
पीत-वस्त्रादि-संयुक्तां, पीतां हृदि निवासिनीम् ।29।

योषिदाकर्षणे शक्तां, फुल्ल-चम्पक-सन्निभाम् ।
दुष्ट-स्तम्भनमासक्तां, बगलांं स्तम्भिनीं भजे ।30।

योगिनी-कोटि-सहितां, पीताहारोप-चञ्चलाम् ।
बगलां परमां वन्दे, पर-ब्रह्य-स्वरूपिणीम् ।31।

पीतार्णव-समासीनां, पीत-गन्धानुलेपनाम् ।
पीतोपहार-रसिकां, भजे पीताम्बरां पराम् ।32।

श्रीबगला-हृदयोक्त ध्यान
गम्भीरां च मदोन्मत्तां, स्वर्ण-कान्ति-सम-प्रभाम् । चतुर्भुजां त्रि-नयनां, कमलासन-संस्थिताम् ।।
ऊर्ध्व-केश-जटा-जूटां, कराल-वदनाम्बुजाम् । मुद्गरं दक्षिणे हस्ते, पाशं वामेन धारिणीम् ।।
रिपोर्जिह्वां त्रि-शूलं च, पीत-गन्धानुलेपनाम् । पीताम्बर-धरां सान्द्र-दृढ-पीन-पयोधराम् ॥
हेम-कुण्डल-भूषां च, पीत-चन्द्रार्ध-शेखराम् । पीत-भूषण-भूषाढ्यां, स्वर्ण-सिंहासने स्थिताम् ।।

त्रैलोक्य-विजय- कवचोक्त ध्यान
चन्द्रोद्-भासित-मूर्धजां रिपु-रसां मुण्डाक्ष-माला-कराम् ।
बालां सत्स्रेक-चञ्चलां मधु-मदां रक्तां जटा-जूटिनीम् ।।
शत्रु-स्तम्भन-कारिणीं शशि-मुखीं पीताम्बरोद् भासिनीम् ।
प्रेतस्थां बगला-मुखीं भगवतीं कारुण्य-रूपां भजे ।।

ब्रह्मास्त्र-रक्षा-कवचोक्त ध्यान
शुद्ध-स्वर्ण-निभां रामां, पीतेन्दु-खण्ड-शेखराम् । पीत-गन्धानुलिप्ताङ्गीं, पीत-रत्न-विभूषणाम् ।।१
पीनोन्नत-कुचां स्निग्धां, पीतालाङ्गीं सुपेशलाम् । त्रि-लोचनांचतुर्हस्तां, गम्भीरांमद-विह्वलाम् ।।२
वज्रारि-रसना-पाश-मुद्गरं दधतीं करैः । महा-व्याघ्रासनां देवीं, सर्व-देव-नमस्कृताम् ।।३
प्रसन्नां सुस्मितां क्लिन्नां, सु-पीतां प्रमदोत्तमाम् । सु-भक्त-दुःख-हरणे, दयार्द्रांं दीन-वत्सलाम् ।
एवं ध्यात्वा परेशानि! बगला-कवचं स्मरेत् ।।४

श्रीबगला-खड्ग-माला-स्तोत्रोक्त्त ध्यान
मध्ये-सुधाब्धि मणि-मण्डित-रत्न-वेद्याम् । सिंहासनोपरि-गतां परि-पीत वस्त्राम्॥
भ्राम्यद्-गदां कर-निपीडित-वैरि-जिह्वाम् । पीताम्बरां कनक-माल्य-वतीं नमामि ।।

सर्व-सिद्धिदा भगवती श्रीबगला-गायत्री-साधना


‘सांख्यायन तन्त्र’ के बारहवें पटल में कुमार कार्तिकेय ने भगवान् शङ्कर से पूछा कि मुझे ‘बगला की गायत्री ‘ बताइए। भगवान्  शङ्कर ने बताया कि ‘ब्रह्मास्त्राय विह्महे स्तम्भन-वाणाय धीमहि तन्नः बगला प्रचोदयात् ‘-यह ‘बगला-गायत्री’ है. जो सर्व-सिद्धि-दायक है। इसके ऋषि ब्रह्मा, छन्द गायत्री, देवता चिन्मयी शक्ति-रूपिणी- ब्रह्मास्त्र-विद्या बगला हैं, बीज ‘‘, शक्ति ‘ह्लीं’ और कीलक ‘विद्महे’ है। इसका पुरश्चरण चार लाख जप से होता है। जप के दशांश से ‘तर्पण’ और उसके दशांश से घृत द्वारा ‘होम’ तथा उसके दशांश से ‘ब्राह्मण-भोजन’ होता है । ‘गायत्री’ का अर्थ है, जिसके गायन अर्थात् मनन से त्राण हो।’बगला-गायत्री’का अर्थ है- भगवती बगला का वह मन्त्र, जिसके मनन से सभी प्रकार से रक्षा होती है। ‘बगला-गायत्री’के बिना भगवती बगला का कोई भी मन्त्र सिद्ध नहीं होता । अत: सर्व-प्रथम’ बगला-गायत्री’ का ‘जप’अवश्य करना चाहिए।माँ बगलामुखी साधना से सम्बंधित अधिक जानकारी के लिए गुरुदेव श्री योगेश्वरानंद जी से संपर्क करें – 9917325788, 9410030994

विनियोग- ॐ अस्य श्रीबगला-गायत्री-मन्त्रस्य ब्रह्मा ऋषिः , गायत्री छन्दः, श्रीचिन्मयी शक्ति-रूपिणी-ब्रह्मास्त्र-बगला देवता, ॐ बीजं, ह्लीं शक्ति:, विद्महे कीलकं, श्रीब्रह्मास्त्र- बगलाम्बा-प्रीत्यर्थे जपे विनियोगः ।

ऋष्यादि-न्यास- श्रीब्रह्मर्षये नमः शिरसि, गायत्री-छन्दसे नमः मुखे, श्रीचिन्मयी शक्ति-रूपिणी-ब्रह्मास्त्र-बगला-देवतायै नमः हृदि, ॐ-बीजाय नमः गुुह्ये  ह्लीं -शक्तये नमः पादयोः,
विह्महे -कीलकाय नमः सर्वाड्गे, श्रीब्रह्मास्त्र-बगलाम्बा-प्रीत्यर्थे जपे विनियोगाय नमः अञ्जलौ।

षडङ्ग-न्यास :                        

कर – न्यास 

ॐ ह्लीं बह्मास्त्राय विह्महे अंगुष्ठाभ्यां नमः स्तम्भन-बाणाय धीमहि तर्जनीभ्यां नमः
तन्नः बगला प्रचोदयात् मध्यमाभ्यां नमः
ॐ ह्लीं ब्रह्मास्त्राय विह्महे अनामिकाभ्यां नमः
स्तम्भन-बाणाय धीमहि कनिष्ठाभ्यां नमः
तन्नः बगला प्रचोदयात् करतल-कर-पृष्ठाभ्यां नमः

अङ्ग-न्यास
ॐ ह्लीं  बह्मास्त्राय विह्महे                 हृदयाय नमः

स्तम्भन-बाणाय धीमहि                  शिरसे स्वाहा

तन्नः बगला प्रचोदयात्             शिखायै वषट्
ॐ ह्लीं ब्रह्मास्त्राय विह्महे         कवचाय हुम्
स्तम्भन-बाणाय धीमहि           नेत्र-त्रयाय वौषट्
तन्नः बगला प्रचोदयात्         अस्त्राय फट्

ध्यान

गम्भीरां च मदोन्मत्तां, स्वर्ण-कान्ति-सम-प्रभाम् । चतुर्भुजां त्रि-नयनां, कमलासन – संस्थिताम् ।।
मुद्गरं  दक्षिणे पाशं, वामे जिह्वां च विभ्रतीम् । पीताम्बर-धरां सौम्यां, दृढ-पीन-पयोधराम् ।।
हेम-कुण्डल-भूषाङ्गीं, पीत-चन्द्रार्द्ध-शेखराम् । पीत-भूषण-भूषाङ्गी, स्वर्ण-सिंहासन-स्थिताम् ।।
प्रात:-कालीन बगला-गायत्री का ध्यान-
मुद्गरं दक्षिणे पाशं, वामे जिह्वां च विभ्रतीम्। पीताम्बर-धरां सौम्यां, दृढ-पीन-पयोधराम् ।।
हेम-कुण्डल-भूषाङ्गी, पीत-चन्द्रार्द्ध-शेखराम्। पीत-भूषण-भूषाङ्गी, स्वर्ण-सिंहासने स्थिताम् ।।

मध्याह्न-कालीन बगला-गायत्री का ध्यान

दुष्ट-स्तम्भनमुग्र-विध्न-शमनं दारिद्रय-विद्रावणम्१ । भू-भृत्-स्तम्भन-कारणं२ मृग-दृशां चेत:- समाकर्षणाम् ३।।सौभाग्यैक-निकेतनं मम दृशोः कारूण्य-पूर्णेक्षणम् । विघ्नौघं बगले! हर प्रति-दिनं कल्याणि! तुध्यं नमः ।।सायं-कालीन बगला- गायत्री का ध्यान-मातर्भञ्जय मद्-विपक्ष-वदनं जिह्वाञ्चलं कीलय । ब्राह्मीं मुद्रय मुद्रयाशु धिषणामंध्रयो-गतिं स्तम्भय ।।शत्रूंश्चूर्णय चूर्णयाशु गदया गौराङ्गि पीताम्बरे! । विघ्नौघं बगले !  हर प्रति-दिनं कल्याणि! तुभ्यं नमः ।।मानस-पूजन – ॐ लं पृथ्वी- तत्त्वात्मकंगन्धं श्रीब्रह्मास्त्र बगला-देवता-प्रीतये समर्पयामिनमः। ॐ हं आकाश-तत्त्वात्मकं पुष्पं श्रीब्रह्मास्त्र बगला-देवता-प्रीतये समर्पयामि नमः । ॐ यं वायु-तत्वात्मकं धूपं श्रीब्रह्मास्त्र बगला-देवता-प्रीतये घ्रापयामि नमः । ॐ रं अग्नि-तत्त्वात्मकंदीपं श्रीब्रह्मास्त्र बगला-देवता-प्रीतये दर्शयामि नमः । ॐ वं जल तत्त्वात्मकं नैवेद्यं श्रीब्रह्मास्त्र- बगला-देवता-प्रीतये निवेदयामि नमः । ॐ सं सर्व-तत्त्वात्मकं ताम्बूलं श्रीब्रह्मास्त्र बगला-देवता-प्रीतये समर्पयामि नमः ।मन्त्र -ॐ ह्लीं ब्रह्मास्त्राय विह्महे स्तम्भन-बाणाय धीमहि तन्नः बगला प्रचदियात् ।

विशेष

बगला-गायत्री-मन्त्र’ (ब्रह्मास्त्राय विद्महे स्तम्भन-वाणाय धीमहि तन्न: बगला प्रचोदयात्) के  प्रारम्भ में ‘ॐ’ लगाकर जप करने से मोक्ष की प्राप्ति होती है।

‘ऐं’ लगाने से शान्ति,

‘क्ली’ लगाने से सम्मोहन,

‘ह्लीं’ लगाने से स्तम्भन,

‘हूं हूं’ लगाने से विद्वेषण,

‘ग्लौं’ लगाने से उच्चाटन की शक्ति प्राप्त होती है।

ऐं क्लीं सौ:’ लगाकर जप करने से वाञ्छित पत्नी की प्राप्ति होती है।

‘श्रीं ‘ लगाने से कुबेर केसमान वैभव की प्राप्ति होती है।

तार्क्ष्य-वीज ‘क्षीं’ को आदि में लगाने से विष-प्रयोग, ग्रह-बाधा एवं रोगादि का नाश होता है।

अमृत-वीज ‘वं’ को लगाकर जप करने से ताप-ज्वर, महा-तापादि की शान्ति होती है।

वायु-वीज ‘यं’ लगाकर जपने से उच्चाटन होता है

‘रं’ लगाकर जपने से शत्रु नष्ट हो जाते हैं।

माया-वीज’ ह्रीं’ लगाकरजपने से वशीकरण होता है।

***श्रीबगला-गायत्री-साधना के कठिन शब्दों का अर्थ१. दारिद्र्य- विद्रावणम्       दरिद्रता को दूर भगानेवाला।

२. भू-भृत् -स्तम्भन-कारणं    राजा (शासक) को नियन्त्रित करनेवाला। ३. मृग-दृशां चेत: समाकर्षणम्    हरिणी-जैसी आँखोंवाली सुन्दर नारियों का आकर्षण करनेवाला।

श्रीबगला-मातृका-साधना


पहले ‘ ध्यान’ करे। फिर शरीर के अङ्गों में मन्त्रों का ‘न्यास’ अर्थात् स्थापन करे। यथा– चतुर्भुजां त्रि-नयनां, कमलासन-संस्थिताम् । त्रिशुलं पान-पात्रं च, गदां जिह्वां च बिभ्रतीम् ।।
बिम्बोष्ठीं कम्बु-कण्ठीं च, सम-पीन-पयोधराम् । पीताम्बरां मदाघूर्णां,  ध्याये ब्रह्मास्त्र – देेेवताम् ।।
।। मातृका-न्यास ।।
१. ॐ ह्लीं श्रीं अं श्रीबगलामुख्यै नमः – शिरसि (सिर में) ।
२. ॐ ह्लीं श्रीं आं श्रीस्तम्भिन्यै नमः -मुखे (मुख में) ।
३. ॐ ह्लीं श्रीं इं श्रीजम्भिन्यै नमः-दक्ष-नेत्रे (दाईं आँख में) ।
४. ॐ  ह्लीं  श्रीं ईं श्रीमोहिन्यै नमः-वाम-नेत्रे (बाईं आँख में) ।
५.ॐ  ह्लीं  श्रीं उं श्रीवश्यायै नमः -दक्ष-कर्णे (दाएँ कान में) ।
६. ॐ  ह्लीं  श्रीं ऊं श्रीचलाये नमः-वाम-कर्णे (बाएँ कान में) ।
७. ॐ  ह्लीं  श्रीं ॠं श्रीअचलायै नमः -दक्ष-नासा-पुटे (दाएँ नथुने में) ।
८. ॐ  ह्लीं  श्रीं ऋं श्रीदुर्द्धरायै नमः-वाम-नासा-पुटे (बाएँ नथुने में) ।
९. ॐ  ह्लीं  श्रीं लृं श्रीअकल्मषायै नमः-दक्ष-गण्डे (कनपटी-सहित दाएँ गाल में)
१०. ॐ  ह्लीं  श्रीं लॄं श्रीधीरायै नमः-वाम-गण्डे (कनपटी-सहित बाएँ गाल में) ।
११. ॐ  ह्लीं  श्रीं एं श्रीकल्पनायै नमः – ऊर्ध्व -ओष्ठे (ऊपरी ओंठ में) ।
१२. ॐ  ह्लीं  श्रीं ऐं श्रीकाल-कर्षिण्यै नमः-अधरोष्ठे (नीचे के ओंठ में) ।
१३. ॐ  ह्लीं  श्रीं ओं श्रीभ्रामिकायै नमः-ऊर्ध्व दन्त-पंक्तौ (ऊपरी दाँतों की कतार में) १४. ॐ  ह्लीं  श्रीं औं श्रीमन्द-गमनायै नमः-अधो दन्त-पंक्तौ (नीचे के दाँतों की कतार में) ।
१५.ॐ  ह्लीं  श्रीं अं श्रीभोगिन्यै नमः मुख-वृत्ते (सम्पूर्ण मुख-मण्डल में) ।
१६. ॐ  ह्लीं  श्रीं अः श्रीयोगिन्यै नमः-कण्ठे (गले में) ।
१७. ॐ  ह्लीं  श्रीं कं श्रीभगाम्बायै नमः -दक्ष-बाहु-मूले (दाईं काँख अर्थात् दाएँ हाथ व कन्धे के जोड़ में)।
१८. ॐ  ह्लीं  श्रीं खं श्रीभग-मालायै नमः -दक्ष-कर्पूरे (दाएँ हाथ की कोहनी में) ।
१९. ॐ  ह्लीं  श्रीं गं श्रीभग-वाहायै नमः दक्ष-मणि-बन्धे (दाईं कलाई में) ।
२०. ॐ  ह्लीं  श्रीं घं श्रीभगोदर्यै नमः – दक्ष-करांगुलि-मूले (दाएँ हाथ की अँगुलियों की जड़ में)।
२१. ॐ  ह्लीं  श्रीं ङं श्रीभगिन्यै नमः -दक्ष-करांगुल्यग्रे (दाएँ हाथ की अँगुलियों के अग्र भाग में)।
२२. ॐ  ह्लीं  श्रीं चं श्रीभग-जिह्वायै नमः -वाम-बाहु-मूले (बाई कॉख में)
२३. ॐ  ह्लीं  श्रीं छं श्रीभगस्थायै नमः – वाम-कर्पूरे (बाईं कोहनी में) ।
२४. ॐ  ह्लीं  श्रीं जं श्रीभग-सर्पिण्यै नमः -वाम- मणि-बन्धे (बाईं कलाई में) । २५. ॐ  ह्लीं  श्रीं झं श्रीभग-लोलायै नमः-वाम-करांगुलि-मूले (बाँएँ हाथ की अँगुलियों की जड़ में) ।
२६. ॐ  ह्लीं  श्रीं ञं श्रीभगाक्ष्यै नमः–वाम-करांगुल्यग्रे (बाँएँ हाथ की अँगुलियों के अग‌् भाग में ) ।
२७. ॐ  ह्लीं  श्रीं टं श्रीशिवायै नमः-दक्ष-उरु-मूले (दाई जाँघ एवं कमर के जोड़ में)
२८. ॐ  ह्लीं  श्रीं ठं श्रीभग-निपातिन्यै नमः-दक्ष-जानुनि (दाँएँ घुटने में) ।
२९. ॐ  ह्लीं  श्रीं डं श्रीजयायै नमः–दक्ष-गुल्फे (दाँएँ टखने में) ।
३०. ॐ  ह्लीं  श्रीं ढं श्रीविजयायै नमः–दक्ष-पादांगुलि-मूले (दाँएँ पैर की अँगुलियों की जड़ में)
३१. ॐ  ह्लीं  श्रीं णं श्रीधात्र्यै नमः–दक्ष-पादांगुल्यग्रे (दाँएँ पैर की अँगुलियों के अग्र भाग मे)
३२. ॐ  ह्लीं  श्रीं तं श्रीअजितायै नमः—वामोरु- मूले (बाईं जाँघ एवं कमर के जोड़ में) ।
३३. ॐ  ह्लीं  श्रीं थं श्रीअपराजितायै नमः–वाम-जानुनि (बाँएँ घुटने में) ।
३४. ॐ  ह्लीं  श्रीं दं श्रीजम्भिन्यै नमः–वाम-गुल्फे (बाँएँ टखने में) ।
३५. ॐ  ह्लीं  श्रीं धं श्रीस्तम्भिन्यै नमः–वाम-पादांगुलि-मूले (बाँएँ पैर की अँगुलियों की जड़ में)
३६. ॐ  ह्लीं  श्रीं नं श्रीमोहिन्यै नमः-वाम-पादांगुल्यग्रे (बाँएँ पैर की अँगुलियों के अग्र भाग में)
३७. ॐ  ह्लीं  श्रीं पं श्रीआकर्षिण्यै नमः– दक्ष-पार्श्वे (दाईं बगल में) ।
३८. ॐ  ह्लीं  श्रीं फं श्रीउमायै नमः – वाम-पार्श्वे (बाईं बगल में)
३९. ॐ  ह्लीं  श्रीं बं श्रीरम्भिण्यै नमः- पृष्ठे (पीठ में) ।
४०. ॐ  ह्लीं  श्रीं भं श्रीजृम्भण्यै नमः – नाभौ (नाभि में) ।
४१. ॐ  ह्लीं  श्रीं मं श्रीकीलिन्यै नमः – जठरे (पेट में) ।
४२. ॐ  ह्लीं  श्रीं यं श्रीवशिन्यै नमः– हृदि (हृदय में) ।
४३. ॐ  ह्लीं  श्रीं रं श्रीरम्भायै नमः – दक्षांसे (दाँएँ कन्धे में) ।
४४. ॐ  ह्लीं  श्रीं लं श्रीमाहेश्वर्यै नमः – ककुदि ( गर्दन के पीछे मध्य में) ।
४५. ॐ  ह्लीं  श्रीं वं श्रीमङ्गलायै नमः-वामांसे (बाँएँ कन्धे में) ।
४६. ॐ  ह्लीं  श्रीं शं श्रीरूपिण्यै नमः-हृदयादि दक्ष-करान्तम् (हृदय से दाहिने हाथ के अन्त तक)
४७. ॐ  ह्लीं  श्रीं षं श्रीपीतायै नमः – हृदयादि वाम-करान्तम् (हृदय से बॉएँ हाथ के अन्त तक)
४८. ॐ  ह्लीं  श्रीं सं श्रीपीताम्बरायै नमः– हृदयादि दक्ष-पादान्तम् (हृदय से दाएँ पैर के अन्त तक ।
४९. ॐ  ह्लीं  श्रीं हं श्रीभव्यायै नमः-हृदयादि वाम-पादान्तम् (हृदय से बॉएँ पैर के अन्त तक ।
५०. ॐ  ह्लीं  श्रीं ळं श्रीसु-रूपा बहु-भाषिण्यै नमः – हृदयादि मुखे (हृदय से मुख तक)

विशेष


अन्त में भगवती बगला का मानसिक पूजन करना चाहिए। यथा-
ऐं आत्म-तत्त्व-व्यापिनी-बगला-मुख्यम्बा श्रीपादुकां पूजयामि ।
क्लीं विद्या-तत्त्व-व्यापिनी-बगला-मुख्यम्बा श्रीपादुकां पूजयामि ।
सौः शिव-तत्त्व-व्यापिनी–बगला-मुख्यम्बा श्रीपादुकां पूजयामि ।  

श्रीबगला-मातृका-साधना के गूढ़ नामों का अर्थ
१. श्रीबगला- मुख्यै नमः   श्रीबगला-मुखी को नमस्कार। भगवती बगला-मुखी का वास्तविक नाम ‘वल्गा-मुखी’ हैं। सामान्य बोल-चाल की भाषा में ‘वल्गा के अक्षर उलट
कर वगला’ या ‘बगला’ हो जाते हैं । ‘वल्गा’-शब्द का अर्थ होता है-‘ लगाम’।
अंतः ‘वल्गा-मुखी’ या ‘बगला-मुखी’ से ‘नियन्त्रित’ करनेवाली शक्ति का बोध
होता है न कि बगला पक्षी का।
यही नहीं, संस्कृत भाषा में ‘बगला’-शब्द का, जब विशेषण के रूप में प्रयोग
होता है, तब उसका अर्थ ‘अरिष्ट’अर्थात् अक्षत, पूर्ण, अविनाशी, निरापद होता
है। इससे भी भगवती बगला-मुखी की विशिष्ट शक्तियों का बोध होता है।।
२. श्रीस्तम्भिन्यै नमः  शत्रुओं का वाक्-स्तम्भन (नियन्त्रण) करनेवाली शक्ति को नमस्कार।
३. श्रीजम्भिन्यै नमः         दुष्टों या दुवृत्तियों को कुतर-कुतर कर टुकड़े करनेवाली को नमस्कार
४. श्रीचलायै नमः         ऐश्वर्यत्व की देवी ‘चला’-लक्ष्मी को नमस्कार।
५. श्रीअचलायै नमः          ‘पृथ्वी’ , ‘ब्रह्म-शक्ति’ को नमस्कार ।
  ६. श्रीदुर्द्धरायै नमः     जिसका सामना न किया सके या जिसे रोका न जा सके, उसको नमस्कार।
७. श्रीअकल्मषायै नमः   पुण्य-दायी-शक्ति को नमस्कार।
८. श्रीकाल-कर्षिण्यै नमः  काल को कर्षित (नियन्त्रित) करनेवाली को नमस्कार।
९.  श्रीभ्रामिकायै नमः  दुष्ट-शक्तियों को उलझानेवाली को नमस्कार।
१०. श्रीभगाम्बायै नमः  ऐश्वर्य-दात्री-शक्ति को नमस्कार।
११. श्रीभग-मालायै नमः  ऐश्वर्य-धात्री-शक्ति को नमस्कार।
१२. श्रीभग-वाहायै नमः ऐश्वर्य-प्रदात्री-शक्ति को नमस्कार।
१३. श्रीभगोदर्यै नमः  लावण्य-मयी-शक्ति को नमस्कार।
१४. श्रीभगिन्यै नमः  सौभाग्य-दायक-शक्ति को नमस्कार।
१५. श्रीभग-जिह्वायै नमः  ऐश्वर्य-प्रिया-शक्ति को नमस्कार।
१६. श्रीभगस्थायै नमः   ऐश्वर्यस्थ शक्ति को नमस्कार।
१७. श्रीभग-सर्पिण्यै नमः  ऐश्वर्य की ओर ले जानेवाली शक्ति को नमस्कार।
१८. श्रीभग-लोलायै नमः  ऐश्वर्य-लक्ष्मी को नमस्कार।
१९. श्रीभगाक्ष्यै नमः  ऐश्वर्य-मयी को नमस्कार।
२०. श्रीभग-निपातिन्यै नमः विपुल ऐश्वर्य को देनेवाली को नमस्कार।
२१. श्रीजृम्भिण्यै नमः   सर्व-प्रकार से विकसित होनेवाली/प्रसारित होनेवाली शक्ति को नमस्कार
२२. श्रीकीलिन्यै नमः  दुष्ट-शक्तियों को बाँधनेवाली शक्ति को नमस्कार।
२३. श्रीरम्भायै नमः   अत्यन्त सुन्दरी को नमस्कार
२४. श्रीपीतायै नमः  पीत-वर्णा स्थिरता-बोधक शक्ति को नमस्कार।
२५. श्रीपीताम्बरायै नमः   पीतं अम्बरं ‘यया सा’ अर्थात् पी लिया है, महा-आकाश को जिसने, उस शक्ति
को नमस्कार। अथवा पीले वस्त्रवाली देवी को नमस्कार। 

बगला-मुखी-शत्रु-विनाशक-कवचम्


प्रस्तुत ‘श्रीबगला-मुखी-शत्रु-विनाशक-कवचम् की महिमा नाम से ही स्पष्ट है ।इस ‘कवच’ के ऋषि स्वयं भगवान् शिव हैं और इसके स्मरण-मात्र से शत्रु गण स्तम्भित हो जाते हैं। आन्तरिक शत्रुओं (काम, क्रोध, लोभ, मोह, अहङ्कार आदि) के शमन हेतु यह ‘कवच’ विशेष रूप से उपयोगी है।


॥ पूर्व-पीठिका-श्री देव्युवाच ॥
नमस्ते शम्भवे तुभ्यं, नमस्ते शशि-शेखर! । त्वत् प्रसादाच्छुतं सर्वमधुना कवचं वद ।। १


॥ श्रीशिव उवाच ।।
श्रृणु देवि! प्रवक्ष्यामि, कवचं परमाद्भुतम् । यस्य स्मरण-मात्रेण, रिपो: स्तम्भो भवेत् क्षणात् ।।२

विनियोग- ॐ अस्य श्रीबगला-मुखी-कवचस्य श्रीशिव ऋषिः , पंक्ति: छन्द: श्रीबगला-मुखी देवता, धर्मार्थ-काम-मोक्षेषु पाठे विनियोग: ।
ऋष्यादि-न्यास-
श्रीशिव-ऋषये नमः शिरसि, पंक्ति:-छन्दसे नमः मुखे, श्रीबगला-
मुखी-देवतायै नमः हृदि, धर्मार्थ-काम-मोक्षेषु पाठे विनियोगाय नमः सर्वाग्ङे।

। मूल कवच-स्तोत्र ॥
‘ॐकारो’ मे शिरः पातु, ‘ह्लींकारो’ वदनेऽवतु । ‘बगला-मुखी’ दोर्युग्मं, कण्ठे ‘सर्व’ सदाऽवतु।। १
दुष्टानां पातु हृदयं, ‘वाचं मुखं’ ततः ‘पदम्’ । उदरे सर्वदा पातु, ‘स्तम्भये ‘ ति सदा मम ।। २
‘जिह्वां कीलय’ मे मातर्बगला सर्वदाऽवतु । ‘बुद्धिं विनाशय’ पादौ, ‘ह्लीं ॐ’ मे दिग‌्- विदिक्षु च।।
स्वाहा’ मे सर्वदा पातु, सर्वत्र सर्व-सन्धिषु ।।३
।। फल-श्रुति ॥।
इति ते कथितं देवि! कवचं परमाद्भुतम्‌। यस्य स्मरण-मात्रेण, सर्व-स्तम्भो भवेत् क्षणात् ।।१
।। श्रीबगला – मुखी-शत्रु-विनाशकं कवचम‌् ।।
विशेष

उक्त ‘कवच’ की विस्तृत ‘फल-श्रुति’ में स्वयं भगवान् शिव के शब्दों में यह उल्लिखित है कि
प्राचीन काल में इस कवच को धारण कर भगवान् वासुदेव ने विविध दैत्यों का विनाश किया था ।इसी
के फल-स्वरूप स्वयं उन्हें सिद्धि प्राप्त हुई थी।
‘कण्ठ’ या ‘दाहिनी भुजा’ में उक्त कवच को लिखकर धारण करने से सभी प्रकार से षट् -कर्मौं मे सिद्धि  प्राप्त होती है। बिना इस ‘कवच’ को जाने भगवती बगला के मन्त्रों की सिद्धि नहीं होती।

श्रीबगला शिव-प्राण-प्रद कवच’एक-वीरा तन्त्र’ में सङ्कलित भगवती बगला का उक्त ‘कवच’ तीन बातों मेंअपनी विशेषता रखता है।प्रथम तो यह कि यदि कोई शत्रुओं से घिर जाए, अथवा धन या पराक्रम से गर्वित व्यक्तियोंद्वारा सताया जाए, अथवा हाथी, सॉंप आादि जन्तुओं का भय हो, तो उनके ‘स्तम्भन’ में यह कवचउपयोगी होता है।दूसरे यह कि इसके ‘पूर्व-पीठिका’-भाग से यह स्पष्ट है कि कृत-युग में एक भयङ्कर वात-क्षोभ उपस्थित हुआ, जिससे सातों समुद्र एक हो गए और देवता भी भयभीत हो उठे। इन्द्र, विष्णुआदि सभी शङ्कर जी के शरणागत हुए। उस समय स्वयं शिव जी ने सभी भयों को दूर करनेवालायह ‘कवच’ देवों को प्रदान किया।तीसरे भस्मासुर के त्रास से इसी कवच द्वारा श्री शिव जी ने अपनी रक्षा की थी। यही कारणहै कि इस ‘कवच’ को ‘शिव-प्राण-प्रद’ कहा गया है।-सम्पादक।। पूर्व-पीठिका-श्रीमहोग्र-तारा उवाच ।राज्ञां मण्डल-गामीनां, प्रबलारिषु सर्पताम् । स-गर्वाणां महा-देव!, धन- विक्रम-चेतसाम् ।।गज-सर्पादि-जन्तूनां, स्तम्भनं वद शङ्कर!॥ श्रीभैरव उवाच ।।पुरा कृत-युगे देवि!, वात-क्षोभमुपस्थिते । सप्तार्णवानामेकत्वं, गतं क्षोभं ययुः सुराः ।।सेन्द्रा स-विष्णवः सर्वे, सामयं१ सायुषः स्थिताः ।।।। देवा उचुः ।।शिव शङ्कर, रुद्रेश!, रक्षास्मान् शरणागतान् । महा-वातादि-विक्षोभ-क्षोभादस्मान् महार्णवात् ।।तच्छुत्वाऽऽह महेशानि!, कवचं पूर्व-निर्मितम् । दत्तवान् सर्व-देवेभ्यो, महा-भय-निकृन्तनम् ।।कवचं बगलामुख्याः, शिव-प्राण-प्रदं महत् । पूर्वं भस्माऽसुर-त्रासात्, भय-विह्वलतः स्वयम् ।।पठते तेन मत्-प्राणान्, स्व-रक्षः परमेश्वरि!। शिव-प्राण प्रदं तस्माद्, विश्रुतं रक्षकं परम् ।।।। मूल-पाठ-श्रीबगला शिव-प्राण-प्रद कवच ।।विनियोग:- ॐ अस्य श्रीबगला- मुखी-कवचस्य श्रीभैरव ऋषिः , उष्णिक् छन्दः , अद्वैत-रूपिणी महा-स्तम्भन-कारिणी श्रीपीताम्बरा देवता, ‘स्थिर-माया’ (ह्लीं) बीजं, ‘स्वाहा’ शक्ति:,’प्रणवः’ ( ॐ) कीलकं, मम दूरस्थानां समीपस्थानां शत्रूणां वाक्-पद-गति-मुख-स्तम्भनार्थंपर-सैन्य-पर-मन्त्र-यन्त्र-मन्त्रौषधि-स्तम्भनार्थं सर्व- राज-कुल-मोहनार्थं श्रीबगला-प्रीत्यर्थे पाठेविनियोग: ।।ऋष्यादि-न्यास – श्रीभैरव-ऋषये नमः शिरसि । उष्णिक्-छन्दसे नमः मुखे। अद्वैत-रूपिणी महा-स्तम्भन-कारिणी श्रीपीताम्बरा-देवतायै नमः हृदि । ‘ह्लीं’-बीजाय नमः गुह्ये ।

‘स्वाहा’-शक्तये नमः नाभौ ।’ ॐ ‘-कीलकाय नमः पादयोः। मम दूरस्थानां समीपस्थानां शत्रुणांवाक‌्-पद-गति-मुख-स्तम्भनार्थं पर-सैन्य-पर-मन्त्र-यन्त्र- मन्त्रौषधि-स्तम्भनार्थं सर्व-राज-कुुल-मोहनार्थं श्रीबगला-मुखी-प्रीत्यर्थं पाठे विनियोगाय नमः सर्वाड्गे।कर-न्यास- ‘ॐ ह्लां’ अंगुष्ठाभ्यां नमः।’ ॐ ह्लीं’ तर्जनीभ्यां नमः।’ ॐ ह्लूूं’ मध्यमाभ्यां नमः ।’ॐ ह्लैं’ अनामिकाभ्यां नमः। ‘ ॐ ह्लौं’  कनिक्ठिकाभ्यां नमः । ‘ॐ ह्लः’ करतल-करपृष्ठाभ्यां नमः ।षडङ्ग-न्यास – ‘ॐ  ह्लां’ हृदयाय नमः । ‘ॐ ह्लीं’ शिरसे स्वाहा। ‘ॐ   ह्लूं’ शिखायेै वषट् ।’ॐ ह्लैं’ कवचाय हुम्।’ ॐ ह्लौं’  नेत्र-त्रयाय वौषट्। ‘ॐ ह्लः’ अस्त्रराय फट्।मूल-मन्त्र-न्यास- ‘ ॐ ह्लीं’ अंगुष्ठाभ्यां नमः ‘बगला- मुखि’ तर्जनीभ्यां नमः ‘सर्व-दुष्टानांमध्यमाभ्यां नमः। ‘वाचं मुखं पदं स्तम्भय’ अनामिकाभ्यां नमः । ‘जिह्वां कीलय’ कनिष्ठिकाभ्यां नमः ।’बुद्धिं विनाशय  ह्लीं ॐ  स्वाहा’ करतल-करपृष्ठाभ्यां नमः । ‘ॐ ह्लीं’ हृदयाय नम:।’ बगलामुखि”शिरसे स्वाहा।’सर्व-दुष्टानां’ शिखायै वषट्। ‘वाचं मुखं पदं स्तम्भय’ कवचाय हुम्। ‘जिह्वां कीलय’नेत्र-त्रयाय वौषट्। ‘बुद्धिं विनाशय ह्लीं ॐ स्वाहा’ अस्त्राय फट्।ध्यानम् -मध्ये सुधाब्धि-मणि-मण्डप-रत्न-वेद्याम् । सिंहासनोपरि- गतां परि-पीत-वर्णाम् ।पीताम्बराऽऽभरण-माल्य-विभूषिताङ्गीम्। देवीं नमामि धृत-मुद्गर-वैरि-जिह्वाम् ।।यथा-शक्ति मूल-मन्त्र का जप कर ‘कवच’ का पाठ करें -षट्-त्रिंशदक्षरा मेऽव्याद, बगला परमा शिरे । सहस्त्रारे गुरुः पातु, मे शक्त्या परमोज्ज्वला ।।१चिद्-रूपा परमा शक्ति:, ललाटं शिव-गेहिनी’ २। भ्रू-युग्मं मे महा- काली, नेत्र-युग्परमेश्वरी । ।२कर्ण-युग्मं पीत-पुष्प-प्रिया देवी कपोलयोः । चिबुके३ परमा शक्तिरोष्ठयोः परमा कला ।। ३वदनं सकलं पातु, पर-ब्रह्म-स्वरूपिणी । पीत-पुष्पार्चिता कण्ठं, स्कन्धौ स्कन्द-स्तन-प्रदा ।।४ पीताम्बरा दक्ष-भुजां, वामे वामाङ्ग-हारिणी । हृदयं च स्तन-द्वन्द्वं, नाभिं विश्व-स्वरूप धृक् ॥५उदरं दुर्धरा मेऽव्यात्, कटिं कन्दर्प-रूप-धृक् । नितम्बौ नमिताऽशेष-देवता जघनं रमा ॥६जङ्घा-युग्मं मणि-धरा, जानुनि जन्तु-रूपिणी । ऊरू धर्म-प्रदा मेऽव्यात्, गुल्फौ गगन-रूप-धृक् ॥।७प्रपदौ कच्छप-पदा, पीता पादांगुलिस्तथा । शिरसः पद-पर्यन्तं, पातु मां परमा कला ।।८गणेश-रूपिणी मेऽव्यादाधारं स-चतुर्दलम् । स्वाधिष्ठानं च षट्-दलं, पातु मां विधि- रूपिणी। ॥९मणि-पूरं दश-दलं, पातु केशव-रूप-धृक् । हृत्-पङ्कजं शैव-शक्ति:, विशुद्धं जीव-रूपिणी ॥१०आज्ञा-चक्र विन्दु-रूपा, पर-ब्रह्म-कुटुम्बिनी। ब्रह्म-रन्ध्रं सहस्त्रारे, पङ्कजाख्ये स्वरूप-धृक् ॥११पातू मां परमा शक्तिश्चमरी कुटिलालका । षट्-त्रिंशदक्षरा विद्या, पीता पीत – वपुर्धरा ४ ॥१२पीत-पुष्पार्चिता पीत-नैवेद्यादि-बलि-प्रिया। सर्वाङ्गं मे शुभा पातु, वैरि-स्तम्भन-कारिणी। ।॥१३(अब सहस्रार से आधार तक)ब्रह्म-रन्ध्रेषु परमा, संसारार्णव-तारिणी । तारयेन् मां महा-देवी, मनो-वाज्छित-दायिनी । ॥१४आज्ञा-चक्रे गुरु-रूपा, महा-भय-विनाशिनी । सर्व-विद्या-धरा पातु, जिह्वां शास्त्र वपुर्धरा ।॥१५विशुद्धे षोडश-दले, जीवेश्वर-वपुर्धरा । षट्-त्रिंशत्-तत्त्व-रूपाख्या, कण्ठस्था मां सदाऽवतु ।| १६हृत् – पड्कजे भवानी-स्वरूपा तु परमात्मिका । इन्द्रियाणां महा-शत्रून्, विदारयतु दारुणा ।| १७

मणि-पूरे दश-दले, महा-विष्णु-स्वरूप-धृक् । दारयेन्निखिलान् मोहान्, मां माया सा पराऽवतु ।|१८प्रजापति-स्वरूपेयं, स्वाधिष्ठाने तु षट्-दले । सुष्टि-स्थिति-परा-विद्या, मां मोहाद् बगलाऽवतु ।।१९गणेश-रूप-धृक् पातु, मामाधारे चतुर्दले । षोडश-स्वर-रूपा च, पातु मां परमा कला ।।२०कं खं गं घं तथा ङं चं, छं जं झं ञं तथाऽवतु । टं ठं डं ढं त्वमाकारा, णं तं थं दं तथाऽवतु ।।२१धं नं पं फं तु शत्रुभ्यो, पीता मां ध्यान-तत्परा। बं भं मं यं हन्यात‌् शत्रुन‌्५, पातु मां वाक्-स्वरूपिणी ।।२२रं लं वं शं तथा शत्रो:, षं सं जिह्वां विदारय ६ । मे वाचं मे मुखं जिह्वां, सदा रक्षतु रक्षतु ।।२३हं ळं क्षं सकलं पातु, रक्ष मां परमं यशः । एषा विद्या महा-विद्या, शत्रु-स्तम्भन-कारिणी ।। २४(त्रिघा मन्त्रं समुच्चार्य सर्वाङ्गे व्यापकं न्यसेत् ।)अन्त में तीन बार मूल-मन्त्र ( ॐ ह्लीं बगलामखि सर्व- दुष्टानां वाचं मुखं पदं स्तम्भय जिह्वांकीलय बुद्धिं विनाशय ह्लीं ॐ स्वाहा) का उच्चारण कर पुन: मन्त्र-न्यास करे। यथा-‘ॐ ह्लीं’ अंगुष्ठाभ्यां नमः। ‘बगलामखि’ तर्जनीभ्यां नमः। ‘सर्व-दुष्टानां’ मध्यमाभ्यां नमः।’वाच मुखं पदं स्तम्भय’ अनामिकाभ्यां नमः। ‘जिह्वां कीलय’ कनिष्ठिकाभ्यां नमः । ‘बुद्धिं विनाशयह्लीं ॐ स्वाहा’ करतल-करपृष्ठाभ्यां नमः ‘ ॐ ह्लीं’ हृदयाय नमः । ‘बगलामुखि’ शिरसे स्वाहा। ‘सर्व-दुष्टानां’ शिखाये वषट्। ‘वाचं मुखं पदं स्तम्भय’ कवचाय हुम्। ‘जिह्वां कीलय’ नेत्र त्रयाय वौषट्।बुद्धिं विनाशय ह्रीं ॐ स्वाहा’ अस्त्राय फट्।विशेषउक्त कवच का पाठ करते समय अर्थ पर अवश्य ध्यान रखना चाहिए। माता बगला के एक-एक नाम में जो अर्थ भरा है, वह हृदय को गद्गद कर देता है। यथा-स्कन्द-स्तन-प्रदा : स्कन्द स्वामी(कार्तिकेय) को स्तन-पान करानेवाली, वामाङ्ग-हारिणी: शिव के वाम अड्ग का हरण करके उन्हेंअर्द्ध-नारीश्वर बनानेवाली, गगन-रूप-धृक् : आकाश-रूप धारण करनेवाली- इससे ‘पीत्वापीत्वैक-शेषां’ की स्मृति हो जाती है। इसी प्रकार अन्य नामों के अर्थ की गहराई में जाना चाहिए।उल्लेखनीय है कि इस कवच में षट्-चक्रों को समझकर उनका ध्यान करना भी आवश्यक है।९वें श्लोक से ११वें श्लोक तक मूलाधार से सहस्त्रार तक उल्लेख कर १४वें श्लोक से पुनः सहस्त्रारसे मूलाधार तक के चक्रों का उल्लेख २०वे श्लोक तक है। इन श्लोकों में चक्रों के स्वरूप तथा चक्रोंमें अधिष्ठित देवताओं ( गणपति, विधाता, केशव अर्थात् क्षीर-शायी विष्णु, हंस-कञ्ज अर्थात्अनाहत में शिव-शक्ति, विशुद्ध में जीव-शक्ति, आज्ञा में विन्दु-रूपा तथा पर-ब्रह्म सहस्त्रार मेंपरमा शक्ति) का सड्केतं भी किया गया है। तदनुसार ही उनका ध्यान करते हुए पाठ करने से विशेषअनुभूति की प्राप्ति होगी।***१. सामयं = मनो-व्यथा-सहित, २. शिव-गेहिनी = शिव की पत्नी, ३. चिबुके = ठोडीमें, ४. पीत – वपुर्धरा =सुन्दर पीत छवि, ५. हन्यात् शत्रून् =शत्रुओ को नष्ट करना   ६. जिह्वां विदारय = शत्रु की वाक्-शक्ति को छिन्न-भिन्न करना।

सर्व-शत्रु-क्षय-कर एवं सर्व-दारिद्रय-नाशकबगला-मुखी ब्रह्मास्त्र-रक्षा-कवचम्दक्षिणामूर्ति-संहिता में उल्लिखित प्रस्तुत’बगला- मुखी ब्रह्मास्त्र रक्षा-कवच ‘ के नामसे ही इसका महत्त्व स्पष्ट है। इस ‘कवच’ के पाठ से सभी प्रकार के शत्रुओं एवं दरिद्रता का समूलनाश होता है। शत्रुओं, चोरों एवं बाघ जैसे खूँखार पशुओं आदि का भय नहीं रहता तथा सभी लोगवशीभूत होते हैं। – सम्पादक।। पूर्व-पीठिका-श्रीब्रह्मोवाच ।।विश्वेश! दक्षिणामूर्ते! निगमागम-वित् प्रभो! । मह्यं पुरा त्वया दत्ता, विद्या ब्रह्मास्त्र संज्ञिता ।।१तस्य मे कवचं ब्रूहि, येनाऽहं सिद्धिमाप्ननुयाम् । भवामि वज्र-कवचं, ब्रह्मास्त्र न्यास-मात्रत: ॥२।। श्रीदक्षिणामूर्तिरुवाच ।।श्रृणु  ब्रह्मन्!परं गुह्यं, ब्रह्मास्त्र-कवचं शुभम्। यस्योच्चारण-मात्रेण, भवेद् वै सूर्य-सन्निभ:१ ।।१सुदर्शनं मया दत्तं, कृपया विष्णवे तथा। तद् – वत् ब्रह्मास्त्र – विद्यायाः, कवचं कथयाम्यहम् ।२अष्टाविंशत्यस्त्र-हेतुमाद्यं ब्रह्मास्त्रमुत्तमम् । सर्व-तेजो-मयं सर्वं , सामर्थ्य-विग्रहं परम् ।।३सर्व-शत्रु-क्षय-करं, सर्व- दारिद्र्य- नाशनम् | सर्वापच्छैल-राशि-नामस्त्रकं२ कुलिशोपमम्३ ।।४न तस्य शत्रवश्चापि, भयं चौर्य-भयं जरा । नरा नार्यश्च राजेन्द्रा:, खगा व्याघ्रादयोऽपि च ।।५तं दृष्ट्वा वशमायान्ति, किमन्यत‌् साधवो जना: । यस्य देहे न्यसेद् धीमान्, कवचं बगला-मयम् ।।६स एव पुरुषो लोके, केवलः शङ्करोपमः । न देयं पर-शिष्याय, शठाय पिशुनाय४ च ।दातव्यं भक्ति-युक्ताय, गुरु-प्रियाय धीमते ।।७विनियोग – ॐ अस्य श्रीबगला-मुखी-ब्रह्मास्त्र-रक्षा-कवचस्य श्रीदक्षिणामूर्तिः ऋषि:,अनुष्टुप्छन्दः,श्रीबगला-मुखी देवता, ‘स्वाहा ‘बीजं, ‘ह्लीं’ शक्ति:, स्व-कार्येसर्व- सिद्ध्यर्थे पाठे विनियोगः।ऋष्यादि-न्यास- श्रीदक्षिणामूर्ति-ऋषये नमः शिरसि, अनुष्टुप्-छन्दसे नम: मुखे, श्रीबगला-मुखी-देवतायै नमः हृदि, ‘स्वाहा’-वीजाय नमः गुह्ये, ‘ह्लीं’-शक्त्यै नमः नाभौ , स्व -कार्ये सर्व-सिद्ध्यर्थे पाठे विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे।ध्यान-
शुद्ध-स्वर्ण-निभां रामां, पीतेन्दु-खण्ड-शेखराम् । पीत-गन्धानुलिप्ताङ्गीं, पीत-रत्न-विभूषणाम् ।।१पीनोन्नत-कुचां स्निग्धां, पीतालाड्गी सुपेशलाम् । त्रि-लोचनां चतुर्हस्तां, गम्भीरां मद-विह्वलाम् ।॥२वज्रारि-रसना-पाश-मुद्गरं दधतीं करैः । महा-व्याघ्रासनां देवीं, सर्व-देव-नमस्कृताम् ।।३

प्रसन्नां सुस्मितां क्लिन्नां, सु-पीतां प्रमदोत्तमाम् । सु-भक्त-दुःख-हरणे, दयार्द्रां दीन-वत्सलाम् ।एवं ध्यात्वा परेशानि! बगला-कवचं स्मरेत् । ॥४मानस-पूजन- ॐ लं पृथ्वी- तत्त्वात्मकं गन्धं श्रीबगला-प्रीतये समर्पयामि नमः । ॐ हंआकाश-तत्त्वात्मकं पुष्पं श्रीबगला-प्रीतये समर्पयामि नमः । ॐ यं वायु-तत्त्वात्मकं धूपं श्रीबगला-प्रीतये घ्रापयामि नमः । ॐ रं अग्नि-तत्त्वात्मकं दीपं श्रीबगला-प्रीतये दर्शयामि नमः । ॐ वं जलतत्त्वात्मकं नैवेद्यं श्रीबगला-प्रीतये निवेदयामि नमः । ॐ सं सर्व -तत्त्वात्मकं ताम्बूलं श्रीबगला-प्रीतये समर्पयामि नमः ।।। मूल रक्षा-कवच-स्तोत्र ।।बगला में शिरः पातु, ललाटे ब्रह्म-संस्तुता । बगला मे भ्रुवौ नित्यं, कर्णयोः क्लेश-हारिणी ।।१त्रिनेत्रा चक्षुषी पातु, स्तम्भिनी गण्डयोस्तथा । मोहिनी नासिकां पातु, श्रीदेवी बगलामुखी ।।२ओष्ठयोर्दुर्धरा पातु, सर्व- दन्तेषु चञ्चला । सिद्धान्नपूर्णा जिह्वायां, जिह्वाग्रे शारदाम्बिके ||३अकल्मषा मुखे पातु, चिबुके बगलामुखी । धीरा मे कण्ठ-देशे तु, कण्ठाग्रे काल-कर्षिणी ।४शुद्ध-स्वर्ण-निभा५ पातु, कण्ठ-मध्येतथाऽम्बिका। कण्ठ-मूलेमहा-भोगा, स्कन्धौशत्रु-विनाशिनी।।५भुजौ में पातु सततं, बगला सुस्मिता परा । बगला मे सदा पातु, कूर्परे कमलोद्भवा ।।६बगलाऽम्बा प्रकोष्ठौ६ तु, मणि-बन्धे महा-बला । बगला-श्रीः हस्तयोश्च, कुरु-कुल्ला करांगुलीम् ।।७नखेषु वज्र-हस्ता च, हृदये ब्रह्म-वादिनी । स्तनौ मे मन्द-गमना, कुक्षयोः७ योगिनी तथा ।।८उदरं बगला माता, नाभिं ब्रह्मास्त्र देवता । पुष्टिं मुद्गर-हस्ता च, पातु नो देव-वन्दिता ।।९पार्श्वयोः हनुमद्-वन्द्या, पशु-पाश-विमोचिनी। करौ राम-प्रिया पातु, ऊरु-युग्मं महेश्वरी।।१०भग-माला तु गुह्यं मे , लिङ्गकामेश्वरी तथा। लिङ्ग-मूले महा -क्लिन्ना८, वृषणौ९ पातु दूतिका । ।११बगला जानुनी पातु, जानु-युग्मं च नित्यशः। जङ्घे पातु जगद्धात्री, गुल्फौ रावण-पूजिता ।। १२चरणौ दुर्जया पातु, पीताम्बा चरणांगुली: । पाद-पृष्ठं पद्म-हस्ता , पादाधश्चक्र-धारिणी ।।१३सर्वाङ्गं बगला देवी, पातु श्रीबगला-मुखी। ब्राह्मी मे पूर्वतः पातु, माहेशी वह्नि-भागत: १० ।।१४कौमारी दक्षिणे पातु, वैष्णवी स्वर्ग-मार्गतः११। ऊर्ध्वं पाश-धरा पातु, शत्रु-जिह्वा-धरा ह्यधः ।। १५रणे राज-कुले वादे, महा-योगे महा-भये। बगला भैरवी पातु, नित्यं क्लीं-कार- रूपिणी ।।१६
।। फल-श्रुति ॥इत्येवं वज्र-कवचं, महा-ब्रह्मास्त्र -संज्ञकम् । त्रि-सन्ध्यं यः पठेद् धीमान्, सर्वैश्वर्यमवाण्नुयात् ।।१न तस्य शत्रव: केऽपि, सखायः सर्व एव च। बलेनाकृष्य शत्रुं स्यात् सोऽपि मित्रत्वमाप्नुयात् ।।३शत्रुत्वे मरुता तुल्यो, धनेन धनदोपमः । रूपेण काम-तुल्यः स्याद्, आयुषा शूल-धृक् -समः१२॥४सनकादि-समो धैर्ये, श्रिया विष्णु-समो भवेत् । सः विद्यया ब्रह्म-तुल्यो, यो जपेत् कवचं नरः । ।५.नारी वापि प्रयत्नेन, वाञ्छितार्थमवाप्नुयान् । द्वितीया सूर्य-वारेण, यदा भवति पद्म-भूः ॥६

तस्यां जातं शतावृत्त्या, शीघ्रं प्रत्यक्षमाप्नुयात् । याता तुरीयं संध्यायां, भू-शय्यायां प्रयत्नतः॥७सर्वान् शत्रून् क्षयं कृत्वा, विजयं प्राप्नुयान् नरः। दारिद्र्यान् मुच्यते चाशु, स्थिरा लक्ष्मी: भवेद् गृहे।८सर्वान् कामानवाप्नोति, स-विषो निर्विषो भवेत् । ऋणं निर्मोचनं स्याद् वै, सहस्त्रावर्तनाद् विधे!।९भूत-प्रेत-पिशाचादि-पीडा तस्य न जायते । द्यु-मणि- भ्राजते यद्-वत्, तद्-वत् स्याच्छ्री-प्रभावतः ।॥१०स्थिराभया भवेत् तस्य, यः स्मरेद् बगला-मुखीम्। जयदं बोधनं कामममुकं देहि मे शिवे ! ।।११जपस्यान्ते स्मरेद् यो वै, सोऽभीष्ट-फलमाप्नुयात् । इदं कवचमज्ञात्वा, यो जपेद् बगला-मुखीम्।॥१२न स सिद्धिमवाप्नोति, साक्षाद् वै लोक-पूजितः । तस्मात् सर्व-प्रयत्नेन, कवचं ब्रह्म-तेजसम् ।नित्यं पदाम्बुज-ध्यानान्, महेशान-समो भवेत् ।। १३।। श्रीदक्षिणामूर्ति-संहितायां ब्रह्मास्त्र-श्रीबगला-मुखी-रक्षा-कवचम् ।।विशेषजो साधक तीनों सन्ध्याओं में उक्त कवच’ का पाठ करता है, वह सभी प्रकार के ऐश्वर्यों को प्राप्तकरता है। उसका कोई शत्रु नहीं होता, सभी उसके मित्र होते हैं।रविवार को यदि ‘द्वितीया’-तिथि हो, तो ब्रह्म-मुहूर्त्त में इस ‘कवच’ का १०० बार पाठ करनेसे शीघ्र सिद्धि प्राप्त होती है। तूरीय संध्या ( मध्य रात्रि ) में शय्या पर जो इस ‘कवच’ का पाठ करताहै, उसके सभी शत्रु नष्ट होते हैं और उसे विजय होती है। दरिद्रता का निवारण होता है तथा उसकेगृह में स्थिर-लक्ष्मी का वास होता है।जो साधक विधि-पूर्वक नियमित रूप से उक्त ‘कवच’ का १००० बार पाठ करता है, उसकीसभी कामनाएँ पूरी होती हैं, विष का निवारण होता है, ऋण एवं भूत-प्रेत-पिशाच आदि की पीड़ा से मुक्तिमिलती है।जो साधक उक्त’ कवच’-पाठ के बाद जय श्री बगला-मुखि!’ कहकर मन-ही-मन’ अमुकंदेहि मे शिवे!’ के रूप में अपनी कामना का स्मरण करता है, उसकी अभीष्ट कामना पूरी होती है।***१. सूर्य-सन्निभः = सूर्य के समान, २. सर्वापच्छैल-राशि-नामस्त्रकं = सर्व- आपत्ति-रूपीप्रस्तर ( पत्थर) राशि नामक अस्त्र, ३. कुलिशोपमम् =वज्र के समान, ४. पिशुनाय = कुटिल प्रदर्शनकरनेवाले दुष्ट (क्रूर, अधम, मन्द-बुद्धि), ५. शुद्ध-स्वर्ण-निभा = शुद्ध स्वर्ण की आभावाली, ६.प्रकोष्ठौ = कोहनी से नीचे दोनों भुजाओं में, ७. कुक्षयो: = पेट के दोनों ओर ‘कोखों’ में, ८. महा-क्लिन्ना= अत्यन्त आर्द्र-शक्ति, ९. वृषणौ= अण्ड-कोषों में, १०. वह्नि-भागत: = पश्चिम दिशा में, ११. स्वर्ग-मार्गतः = उत्तर दिशा में, १२. शूल-धृक्-समः = भगवान् शिव के समान।

श्रीबगला-त्रैलोक्य-विजय-कवच’विष्णु-यामल’ में उल्लिखित भगवती बगला के उक्त कवच के ऋषि श्रीभैरव जी हैं।इससे इस ‘कवच’ की महिमा स्वत: स्पष्ट हो जाती है। कलि-युग में यह’ कवच’ सभी कामनाओंको पूरा करनेवाला है। इसका नाम ही है-‘त्रैलोक्य-विजय-कवच’। -सम्पादकविनियोग-ॐ अस्य श्रीबगला-त्रैलोक्य-विजय-कवचस्य श्रीभैरव ऋषिः , उष्णिक् छन्दः,श्रीबगला-मुखी देवता, ‘ह्रीं’ वीजं, ‘ॐ’ शक्ति:, ‘स्वाहा’ कीलकं, त्रि-वर्ग-फल-प्राप्तये पाठेविनियोगः।ऋष्यादि-न्यास-श्रीभैरव-ऋषये नमः शिरसि, उष्णिक‌्-छन्दसे नमः मुखे, श्रीबगला-मुखी-देवतायै नमः हृदि, ‘ह्रीं’-वीजाय नमः गृह्ये, ‘ ॐ ‘- शक्तये नमः नाभौ , ‘स्वाहा’-कीलकायनमः पादयोः, त्रि-वर्ग-फल-प्राप्तये पाठे विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे।ध्यान-चन्द्रोद्-भासित-मूर्धजां रिपु-रसां१ मुण्डाक्ष-माला – कराम् ।बालां सत्-स्त्रेक-चञ्चलां मधु-मदां रक्तां जटा-जूटिनीम् ।।शत्रु-स्तम्भन-कारिणीं शशि-मुखीं पीताम्बरोद्- भासिनीम् ।प्रेतस्थां बगला-मुखीं भगवतीं कारुण्य-रूपां भजे ।।मानस-पूजन- ॐ लं पृथ्वी-तत्त्वात्मकं गन्धं श्रीबगला-प्रीतये समर्पयामि नमः । ॐ हंआकाश-तत्त्वात्मकं पुष्पं श्रीबगला-प्रीतये समर्पयामि नमः । ॐ यं वायु-तत्त्वात्मकं धूपं श्रीबगला-प्रीतये घ्रापयामि नमः । ॐ रं अग्नि- तत्त्वात्मकंदीपं श्रीबगला – प्रीतये दर्शयामि नमः । ॐ वं जल-तत्त्वात्मकं नैवेद्यं श्रीबगला-प्रीतये निवेदयामि नमः । ॐ सं सर्व – तत्त्वात्मकं ताम्बूलं श्रीबगला-प्रीतये समर्पयामि नमः ।।प्राणायाम’ कर ‘कवच-स्तोत्र’ का पाठ करें-।॥ कवच-स्तोत्र ।।ॐ ह्लीं मम शिरः पातु, देवी श्रीबंगलामुखी । ॐ ऐं क्लीं पातु मे भालं, देवी स्तम्भन-कारिणी ।।१ॐ अं इं हं भ्रुवौ पातु, बगला क्लेश-हारिणी । ॐ हं पातु मे नेत्रे, नारसिंही शुभङ्करी ।|२ॐ ह्लीं श्रीं पातु में गण्डौ, अं आं इं भुवनेश्वरी । ॐ ऐं क्लीं सौ: श्रुतौ पातु, इं ई ऊं च परमेश्वरी ।।३ॐ ह्लीं ह्लूं ह्लीं सदाऽव्यान् मे, नासां ह्लीं सरस्वती । ॐ ह्रां ह्रीं मे मुखं पातु, लीं एं ऐं छिन्न-मस्तिका ।।४ॐ श्रीं वं मेऽधरौ पातु, ओं औं दक्षिण-कालिका । ॐक्लीं श्रीं शिरसः पातु, कं खं गं घं च सारिका ।।५ॐ ह्रीं ह्रं भैरवी पातु, ङं अं अः त्रिपुरेश्वरी । ॐ ऐं सौ: में हनुं पातु, चं छं जं च मनोन्मनी ।।६ॐ श्रीं श्रीं मे गलं पातु, झं ञं टं ठं गणेश्वरी । ॐ स्कन्धौ मेऽव्याद् डं ढं णं, हूं हूं चैव तू तोतला ।।७

ॐ ह्रीं श्रीं मे भुजौ पातु, तं थं दं वर-वर्णिनी । ॐ ऐं क्लीं सौ: स्तनौ पातु, धं नं पं परमेश्वरी ।।८ॐ क्रों क्रों मे रक्षेद् वक्षः, फं बं भं भग-वासिनी । ॐ ह्रीं रां पातु कुक्षिं मे, मं यं रं वह्नि-वल्लभा ।।९ॐ श्रीं  ह्रूं  पातु मे पार्श्वौ, लं  वं लम्बोदर-प्रसू: । ॐ श्रीं ह्रीं हूं पातु नाभि, शं षं षण्मुख -पालिनी ।।१०ॐ ऐं सौ: पातु मे पृष्ठं, सं हं हाटक-रूपिणी ।ॐ क्लीं ऐं मे कटिं पातु, पञ्चाशद्-वर्ण-मालिका ।।११ॐ ऐं क्लीं पातु मे गुह्यं, अं आं कं गुह्यकेश्वरी । ॐ श्रीं ऊं ऋं सदाऽव्यान् मे, इं ई खं खा – स्वरूपिणी ।।१२ॐ जूं सः पातु मे जघ्ङे ,रुं रूं धं अघ-हारिणी । ॐ श्रीं ह्रीं पातु में जानु, उं ऊं णं गण-वल्लभा ।।१३ॐ श्रीं सः पातु मे गुल्फौ, लिं लीं ऊं चं च चण्डिका । ॐ ऐं ह्रीं पातु मे वाणी, एं ऐं छं जं जगत्- प्रिया ।।१४ॐ श्रीं क्लीं पातु पादौ मे, झं ञं टं ठं भगोदरी। ॐ ह्रीं सर्वं वपुः पातु, अं अः त्रिपुर-मालिनी ।।१५ॐ ह्रीं पूर्वे सदाऽव्यान् मे, झं झां डं ढं शिखा-मुखी । ॐ सौ: याम्यं सदाऽव्यान् मे, इं ईं णं तं च तारिणी।। १६ॐ वारुण्यां च वाराही, ऊं थं दं धं च कम्पिला । ॐ श्रीं मां पातु चैशान्यां, पातु ॐ नं जनेश्वरी ।।१७ॐ श्रीं मां चाग्नेयां पातु, ऋं भं मं धं च योगिनी । ॐ एं मां पातु नैऋत्यां, लृं  लं राजेश्वरी तथा ।।१८ॐ श्रीं मां पातु वायव्यां, लृं लं मे वीत-केशिनी । ॐ प्रभाते च मां पातु, लीं लं वागीश्वरी सदा ।।१९ॐ मध्याह्ने च मां पातु, ऐं क्षं शङ्कर-वल्लभा । ॐ श्रीं ह्रीं क्लीं पातु सायं, ऐं आं शाकम्भरी सदा ।।२०ॐ ह्रीं निशादौ मां पातु, ॐ सं सागर- वासिनी । क्लीं निशीथे च मां पातु, ॐ हं हरि-हरेश्वरी ।।२१ॐ क्लीं ब्राह्ये मुहूर्तेऽव्याद, लं लां त्रिपुर – सुन्दरी । विसर्गा तु यद्-यत् स्थानं, वर्जितं कवचेन तु ।।क्लीं तन्मे सकलं पातु, अं क्षं ह्लीं बगला – मुखी ।।२२।। फल-श्रुतिं ।।इतीदं कवचं दिव्यं, मन्त्राक्षर-मयं परम् । त्रैलोक्य-विजयं नाम, सर्व-वर्ण-मयं स्मृतम् ।।१ ।। विष्णु-यामले श्रीबगला-त्रैलोक्य-विजय कवचम् ।॥विशेषउक्त ‘कवच’ की विशेष महिमा यह है कि इसके पाठ-मात्र से पाठ-कर्त्ता ‘दीक्षित’ हो जाताहै। अत: सिद्ध-विद्या, ब्रह्म-विद्या की भाँति यथेष्ट फल-प्राप्ति हेतु इसका पाठ अत्यन्त गोपनीय रूपसे निरन्तर करना चाहिए। जो साधक उक्त’ मन्त्र- गर्भ-कवच’ का सतत स्मरण करता है, वह सभी शत्रुओंको ‘काल’ की भाँति जीत लेता है। ‘कवच’ का ‘मनसा-वाचा-कर्मणा’ पाठ करने से सभी प्रकार केउत्पातों में, घोर भय-दायक स्थिति में, विविध रोगों में शान्ति प्राप्त होती है। ‘त्रैलोक्य-विजय-कवच’पुत्र-पौत्र-धन-प्रदायक है। इसके पाठ से ऋणों का निवारण होता है, लक्ष्मी एवं भोग की वृद्धि होती है।विशेष अनुभूति के लिए रविवार की रात्रि में स्नान आदि करके ‘ पूजा- गृह’ में  ‘दीपक’ जलाकरउक्त ‘कवच’ का पाठ करें। ऐसे ही लगातार तीन रविवारों की रात्रि में पाठ करना चाहिए।
***
१. रिपु-रसा = शत्रु की जिह्वा 

कीर्ति, श्री एवं विजय प्रदायक

श्रीबगला-मुखी-विश्व-विजय-कवच
* श्रीविश्व-सारोद्धार तन्त्र’ में वर्णित उक्त ‘श्रीबगला-मुखी-विश्व-विजय-कवच’ के
ऋषि भी श्रीभैरव जी हैं, किन्तु इसको पूछनेवाली श्रीपार्वती जी हैं और बतानेवाले श्रीशङ्कर
जी। श्रीशङ्कर जी भगवती से इसे बताते हुए कहते हैं कि ‘कवच’ और कवच के साथ उल्लिखित
‘महा-मन्त्र’ समृद्धि एवं मुक्ति-दायक हैं। -सम्पादक

विनियोग
ॐ अस्य श्रीबगला-मुखी-विश्व-विजय-कवचस्य श्रीभैरव ऋषिः, विराट्
छन्दः, श्रीबगला-मुखी देवता, ‘क्लीं’ बीजं, ‘ऐं’ शक्ति:, ‘ श्रीं कीलकं, मम परस्य च मनोभिलषितेष्ट-
कार्य-सिद्धये पाठे विनियोगः ।
ऋष्यादि-न्यास
श्रीभैरव-ऋषये नमः शिरसि, विराट्-छन्दसे नमः मुखे, श्रीबगला-
मुखी-देवतायै नमः हृदि, ‘क्लीं’-वीजाय नमः गुह्ये, ‘ऐं’-शक्तये नमः नाभौ, ‘श्रीं’-कीलकाय
नमः पादयोः, मम परस्य च मनोभिलषितेष्ट-कार्य-सिद्धये पाठे विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे।
कर-न्यास – ॐ ह्रां  अंगुष्ठाभ्यां नमः । ॐ ह्रीं तर्जनीभ्यां नमः । ॐ ह्रूं मध्यमाभ्यां नमः ।
ॐ ह्रैं अनामिकाभ्यां नमः । ॐ ह्रौं कनिष्ठिकाभ्यां नमः । ॐ ह्रः करतल- कर-पृष्ठाभ्यां नमः ।अङ्ग-न्यास-ॐ ह्रां हृदयाय नमः । ॐ ह्रीं शिरसे स्वाहा। ॐ ह्रूं शिखायै वषट् । ॐ हैं
कवचाय हुम्। ॐ हौं नेत्र-त्रयाय वौषट्। ॐ ह्रः अस्त्राय फट्। ध्यान –
सौवर्णासन-संस्थितां , त्रि-नयनां पीतांशुकोल्लासिनीम् ।
हेमाभाङ्ग-रुचि शशाङ्क-मुकुटां स-चम्पक-स्त्रग्-युताम् ।।
हस्तैर्मुद्गर – पाश-्वज्र-रसनाः संबिभ्रतीं भूषणै –
व्यप्ताङ्गीं बगलामुखीं त्रि-जगतां संस्तम्भिनी चिन्तये ।।

मन्त्र
ॐ ह्रीं ऐं श्रीं क्लीं श्रीबगलानने! मम रिपून् नाशय नाशय, ममैश्वर्याणि देहि देहि, शीघ्रं
मनो-वाञ्छितं कार्यं साधय साधय, ह्रीं स्वाहा । (४८ अक्षर)।
।। कवच-स्तोत्र-पाठ ।।
शिरो में पातु ‘ ॐ ह्रीं ऐ’, ‘श्रीं क्लीं’ पातु ललाटकम् । सष्बोधन-पदं पातु, नेत्रे ‘श्रीबगलानने’ ॥१
श्रुतौ’ मम रिपून्’ पातु, नासिकां ‘नाशय’-द्वयम् । पातु गण्डौ सदा मामैश्वर्याण्यन्तं तु मस्तकम् ।।२
‘देहि-द्वन्द्वं सदा जिह्वां, पातु ‘शीघ्रं’ वचो मम । कण्ठ-देशं’ मनः ‘ पातु,’वाञ्छितं’ बाहु-मूलकम् ।।३ 

‘कार्य’ ‘साधय’-द्वन्द्ं तु, करौ पातु सदा मम। ‘माया’-युक्ता तथा ‘स्वाहा’, हृदयं पातु सर्वदा।।४
अष्टाधिक-चत्वारिंश-दण्डाढ्या बगला – मुखी । रक्षां करोतु सर्वत्र, गृहेऽरण्ये सदा मम ।।५
ब्रह्मास्त्राख्यो मनुः पातु, सर्वाङ्गे सर्व- सन्धिषु । मन्त्र-राज: सदा रक्षां, करोतु मम सर्वदा।।६
‘ॐ ह्रीं’ पातु नाभि- देशं, कटिं में’ बगला’ऽवतु । ‘मुखि’ – वर्ण-द्वयं पातु, लिङ्ग मे मुष्क-युग्मकम् *१।।७
जानुनी’सर्व-दुष्टानां’, पातु मे वर्ण-पञ्चकम् । ‘वाचं मुखं ‘तथा’पादं’, षड्-वर्णा परमेश्वरी ।।८
जङ्घा-युग्मे सदा पातु, बगला रिपु-मोहिनी । ‘स्तम्भये’ ति पदं ‘पृष्ठं, पातु वर्ण-त्रयं मम ।९
जिह्वा-वर्ण-द्वयं पातु, गुल्फौ मे ‘ कीलये ‘ति च । पादोर्ध्वं सर्वदा पातु, ‘बुद्धि’पाद-तले मम ।।१०
‘विनाशय’-पदं पातु, पादांगुल्योर्नखानि मे । ‘ह्रीं’ बीजं सर्वदा पातु, बुद्धीन्द्रिय-वचांसि मे ।।११सर्वाङ्गं ‘प्रणवः’ पातु, ‘स्वाहा’ रोमाणि मेऽवतु । ब्राह्मी पूर्व-दले पातु, चाग्नेय्यां विष्णु-वल्लभा ।। १२
माहेशी दक्षिणे पातु, चामुण्डा राक्षसेऽवतु । कौमारी पश्चिमे पातु, वायव्ये चापराजिता ।।१३
वाराही चोत्तरे पातु, नारसिंही शिवेऽवतु । ऊर्ध्वं पातु महा-लक्ष्मी:, पाताले शारदाऽवतु ।। १४
इत्यष्टौ शक्तयः पान्तु, सायुधाश्च स-वाहना: । राज-द्वारे महा-दुर्ग, पातु मां गण-नायक: ।।१५
श्मशाने जल-मध्ये च, भैरवश्च सदाऽवतु । द्वि-भुजा रक्त-वसनाः, सर्वाभरण-भूषिताः ।
योगिन्यः सर्वदा पान्तु, महाऽरण्ये सदा मम ।।१६
।। फल-श्रुति ।।
इति ते कथितं देवि! कवचं परमाद्भुतम् । ‘श्रीविश्व-विजयं’ नाम कीर्ति-श्री-विजय-प्रदम् ।।१
॥ श्रीविश्व-सारोद्धार-तन्त्रे श्रीबगला- मुखी-विश्व-विजय-कवचम् ।।
विशेष
उक्त’कवच’ के पाठ से’ अपुत्र को ‘पुत्र’, ‘निर्धन’ को ‘धन’ और ‘उद्योगी/साहसी’ को १००
वर्ष की ‘पूर्णायु’ की प्राप्ति होती है।
जो साधक रात्रि में श्रीबगला-मुखी का ध्यान करते हुए उक्त मन्त्र का जप कर ‘कवच’ का
पाठ नियमित रूप से करता है, उसकी सभी साध्य/असाध्य कामनाएँ पूरी होती हैं तथा विवादों में उसे विजय प्राप्त होती है।
उक्त’ कवच’ का पाठ कर अभिमन्त्रित ‘मक्खन’ पत्नी को खिलाने से विद्यावान्, स्वस्थ पुत्र की
प्राप्ति होती है।’भोज-पत्र’ पर’ अष्ट-गन्ध’ से ‘कवच’-पाठ द्वारा अभिमन्त्रित’उउक्त मन्त्र’ को लिखकर व
‘साधक’ की ‘दाहिनी भुजा’ तथा ‘पत्नी’ की ‘बॉई भुजा’ में धारण करने से ‘साधक’ को सर्वत्र
‘विजय’ प्राप्त होती है और ‘पत्नी’ पुत्र-वती होती है।

१. मुष्क-युग्मकम्= दोनो अण्ड-कोष। 

सर्व-काम-प्रद एवं समृद्धि-दायक
श्रीमहा-विद्या-पीताम्बरा-बगला-मुखी-कवच
‘श्रीरुद्र-यामल’ में वर्णित’ श्रीमहा-विद्या-पीताम्बरा-बगला – मुखी-कवच’ के सन्दर्भ
में स्वयं भगवान् शङ्कर पार्वती जी से कहते हैं कि यह ‘कवच’ सभी कामनाओं को
है और इसके स्मरण-मात्र से महा-विद्या पीताम्बरा बगला-मुखी प्रसन्न होती हैं सबसे पहले
‘गुरु’ का ध्यान कर, ‘प्राणायाम’ करना चाहिए। फिर ‘ कवच’ का पाठ करना चाहिए।-सम्पादक

विनियोग- ॐ अस्य श्रीमहा-विद्या-पीताम्बरा-बगलामुखी-कवचस्य श्रीमहा-देवऋषिः,
उष्णिक् छन्दः, श्रीपीताम्बरा देवता, ‘ह्लीं’ वीजम्, ‘स्वाहा’ शक्ति:, ‘अं ठ:’ कीलकम्, मम
सन्निहितानां दूर-स्थानां सर्व- दुष्टानां वाङ्-मुख-पद-जिह्वापवर्गाणां स्तम्भन -पूर्वकं सर्व- सम्पत्ति-
प्राप्ति-चतुर्वर्ग-फल-साधनार्थे पाठे विनियोग:।
ऋष्यादि-न्यास- श्रीमहा-देव-ऋषयेनमः शिरसि, उष्णिक्-छन्दसे नम: मुखे, श्रीपीताम्बरा-
देवतायै नमः हृदि, ‘ह्लीं’-वीजाय नमः गुह्ये, ‘स्वाहा’-शक्तये नमः नाभौ, ‘अं ठ:’ -कीलकाय नमः
पादयोः, मम सन्निहितानां दूर-स्थानां सर्व- दुष्टानां वाङ्-मुख-पद-जिह्वापवर्गाणां स्तम्भन-पूर्वकं
सर्व-सम्पत्ति-प्राप्ति-चतुर्वर्ग-फल-साधनार्थे पाठे विनियोगाय नमः सर्वाङ्गे।
ध्यान –
मध्ये – सुधाब्धि मणि-मण्डप-रत्न-वेद्याम् । सिंहासनोपरि-गतां परिपीत-वर्णाम् ।।
पीताम्बराभरण-माल्य-विभूषिताङ्गीम् । देवीं भजामि धृत-मुद्गर-वैरि-जिह्वाम्।।१
जिह्वाग्रमादाय करेण देवीं, वामेन शत्रून् परि – पीडयन्तीम् ।
गदाभिघातेन च दक्षिणेन, पीताम्बराढ्यां द्वि-भुजां नमामि ।।२
‘प्राणायाम’ कर ‘कवच-स्तोत्र’ का पाठ करे-
।। कवच-स्तोत्र ।।
सर्व-सिद्धि-प्रदा प्राच्यां, पातु मां बगलामुखी। पीताम्बरा तु चाग्नेय्यां, याम्यां महिष -मर्दिनी। ।१
नैऋत्यां चण्डिका पातु, भक्तानुग्रह-कारिणी । पातु नित्यं महा-देवी, प्रतीच्यां शूकरानना ।।२
वायव्ये पातु मां काली, कौबेर्यां त्रिपुराऽवतु । ईशान्यां भैरवी पातु, पातु नित्यं सुर-प्रिया ।।३
ऊर्ध्वं वागीश्वरी पातु, मध्ये मां ललिताऽवतु । अधस्ताद् अपि मां पातु, वाराही चक्र-धारिणी ।।४
मस्तकं पातु मे नित्यं, श्रीदेवी बगला-मुखी । भालं पीताम्बरा पातु, नेत्रे त्रिपुर-भैरवी ।।५
श्रवणौ विजया पातु, नासिका-युगलं जया । शारदा वचनं पातु, जिह्वां पातु सुरेश्वरी ।।६
कण्ठं रक्षतु रुद्राणी, स्कन्धौ मे विन्ध्य-वासिनी । सुन्दरी पातु बाहू मे, जया पातु करौ सदा ।।७

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